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महावीर वाणी धन-धान्यादि परिग्रह नरक (का हेतु) है, यह देखकर मुमुक्षु न दिया हुआ तृण-मात्र भी ग्रहण न करे। ८. पाणे य णाइवाएज्जा अदिण्णं पि य णातिए।
सातियं ण मुसं बूया एस धम्मे वुसीमओ।। (सू० १, ८ : २०)
प्राणियों का अतिपात-हनन न करे, न दी हुई कोई वस्तु न ले, कपटपूर्ण झूठ न बोले। यही आत्मजयी पुरुषों का धर्म है। ६. मुसावायं बहिद्धं च उग्गहं च अजाइयं ।
सत्थादाणाइं लोगंसि तं विज्ज ! परिजाणिया ।।(सू० १, ६ : १०)
मृषावाद, मैथुन, परिग्रह, अदत्तादाने-ये सब लोक में प्राणियों को परिताप के हेतु होने के कारण शस्त्र के समान हैं और बंधन के कारण हैं। विद्वान् यह जानकर इनका त्याग करे। १०. णो तास चक्खु संधेज्जा णो वि य साहसं समणुजाणे। णो सिद्धियं हि विहरेज्जा एवमप्पा सुरक्खिओ होइ।।
__ (सू० १, ४ (१) : ५) स्त्रियों पर आँख न साँधे । विषय-सेवन के साहस को अच्छा न माने । उनके साथ विहार न करे। इस प्रकार आत्मा सुरक्षित होती है। ११. सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य ।
पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए।। (उ० १६ : १०)
मुमुक्षु शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-इन पाँच प्रकार के कामभोगों का सदा परिवर्जन करे। १२. पलिउंचणं च भयणं च थंडिल्लुस्सयणाणि य।
धुत्तादाणाणि लोगंसि तं विज्जं ! परिजाणिया।। (सू० १, ६ : ११)
माया, लोभ, क्रोध और मान संसार में बंधन के हेतु हैं। विज्ञ उन्हें जानकर उनका त्याग करे। १३. प्रभु दोसे णिराकिच्चा ण विरुज्झेज्ज केणइ ।
मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो।। (सू० १, ११ : १२)
दोषों को दूर कर जितेन्द्रिय पुरुष किसी के साथ जीवन पर्यन्त मन, वचन, काया से विरोध न करे। १४. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए।
धम्मसुक्काइं झाणाइं झाणं तं तु बुहा वए।। (उ० ३० : ३५)
आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का वर्जन कर सुसमाहित मुमुक्षु धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान का अभ्यास करे। ज्ञानी इसे ही ध्यान-तप कहते हैं।