Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 364
________________ ३६. श्रमण - शिक्षा ३३६ ४. विउट्ठितेणं समयाणुसिट्ठे डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु । अब्भुट्टिताए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिट्ठे । । ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेजा ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा ।। (सू० १, १४ : ८-६) परतीर्थिक आदि द्वारा, किसी दूसरे छोटे, बड़े या समवस्क द्वारा, अत्यन्त हल्का काम करनेवाली दासी या घटवासी द्वारा अथवा गृहस्थ द्वारा भी अर्हत्-दर्शन की ओर अनुशासित किया हुआ साधु उन पर क्रोध न करे और न उन्हें पीड़ित करे। वह उनके प्रति कटु शब्द न कहे, पर 'मैं अब से ऐसा ही करूँगा' - ऐसी प्रतिज्ञा करे। वह यह सोचकर कि यह मेरे स्वयं के भले के लिए है, कभी प्रमाद न करे । ५. वणंसि मूढस्स जहा अमूढा मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणा वि मज्झं इणमेव सेयं जं मे बुधा सम्मऽणुसासयंति । । (सू० १, १४ : १०) वन में दिग्मूढ़ मनुष्य को दिशा-निर्देश करनेवाला अमूढ़ मनुष्य जैसे उसका हित करता है, उसी तरह मेरे लिए भी यह श्रेयस्कर है कि बुद्ध पुरुष शिक्षा देते हैं । १४. अनासक्ति १. अण्णयपिंडेणऽहियासएज्जा णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । सद्देहि रूवेहि असज्जमाणे सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं । । (सू० १, ७ : २७) साधु अज्ञात पिण्ड से जीवन चलावे । तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करे । वह शब्द और रूप में आसक्त न हो और सर्व कामना से चित्त को हटावे । २. सव्वाइं संगाई अइच्च धीरे सव्वाइं दुक्खाइं तितिक्खमाणं । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा । । ( सू० १,७ : २८ ) धीर भिक्षु सब सम्बन्धों को छोड़कर सब प्रकार के दुःखों को सहन करता हुआ चारित्र में सम्पूर्ण होता है। वह अगृद्ध और अप्रतिबंध-विहारी होता है। वह प्राणियों को अभय देता हुआ विषयों में अनाकुल रहता है।

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