Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 407
________________ ३८२ महावीर वाणी जिस तरह पोली मुट्ठी और अयंत्रित-बिना छाप का खोटा-सिक्का असार होता है, उसी तरह जो व्रतों में स्थिर नहीं होता उसका गुणहीन वेष असार होता है। वैडूर्य मणि की तरह प्रकाश करता हुआ भी काँच जानकार के सामने मूल्यवान नहीं होता। ४. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसे व धम्मो विसओववन्नो हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।। (उ० २० : ४४) जिस तरह पिया हुआ कालकूट विष पीनेवाले का हनन करता है, जिस तरह उल्टा ग्रहण किया हुआ शस्त्र शस्त्रधारी का घात करता है और जिस तरह विधि से वश नहीं किया हुआ वैताल मन्त्रधारी का विनाश करता है, उसी तरह विषयों से युक्त धर्म आत्मा के पतन का ही कारण होता है। ५. न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ जं. से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो।। (उ० २० : ४८) दुरात्मा अपना जो अनिष्ट करता है, वह कण्ठछेद करनेवाला बैरी भी नहीं करता। दुराचारी अपनी आत्मा के लिए सबसे बड़ा दयाहीन होता है, पहले उसे अपने कर्मों का भान नहीं होता परन्तु मृत्यु के मुख में पहुँचते समय वह पछताता हुआ इस बात को जान सकेगा। ६. उदगस्स प्पभावेणं सुक्कम्मि घातमेति उ। ढंकेहि य कंकेहि य आमिसत्थेहिं ते दुही।। एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो। मच्छा वेसालिया चेव घायमेसंतणंतसो।। (सू० १, १ (३) : ३,४) . बाढ़ आने पर जल के प्रभाव से सूखे स्थान को प्राप्त वह वैशालिक मत्स्य मांसार्थी ढंक और कंक के द्वारा घात को प्राप्त होता है, वैसे ही वर्तमान सुख की ही इच्छा रखने-वाले जो श्रमण हैं, वे मरने के बाद, सूखी भूमि पर वैशालिक मत्स्य की तरह, अनन्त वार घात को प्राप्त होते हैं।

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