Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 405
________________ ३८० महावीर वाणी अन्धे पुरुष का अनुसरण कर अभिप्रेत स्थान को नहीं पहुँच सकता, उसी तरह स्नान आदि से मोक्ष मानने वाले मूर्ख प्राणियों की घात करते हुए सिद्धि नहीं पा सकते । ३. हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पायं अगणिं फुसंता । एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसिं अगणिं फुसंताण कुकम्मिणं पि । । (सू० १, ७ : १८) मूढ़ मनुष्य सुबह और संध्या अग्नि का स्पर्श करते हुए हुताशन से सिद्धि बतलाते हैं। अगर इस तरह से मुक्ति मिले तब तो रात-दिन अग्नि का स्पर्श करने वाले लोहारादि कर्मी भी मोक्ष प्राप्त करेंगे। ४. अपरिच्छ दिट्ठि ण हु एव सिद्धी एहिंति ते घातमबुज्झमाणा । भूतेहिं जाण पडिवेह सातं विज्ज गहाय तसथावरेहिं । । (सू० १, ७ : जो स्नान और होमादि से सिद्धि बतलाते हैं, वे आत्मार्थ को नहीं पहचानते । इस तरह मुक्ति नहीं होती। वे परमार्थ को समझे बिना प्राणी. हिंसा कर संसार में भ्रमण करेंगे। विवेकी पुरुष त्रस - स्थावर सब जीव सुख चाहते हैं - इस तत्त्व को ग्रहण कर वर्तन करते हैं । ३. परमार्थ १. जो सहस्सं सहस्सणं मासे मासे गवं दए । तस्सावि संजमो सेओ अदिंतस्स वि किंचण । । १६) ( उ० ६ : ४० ) प्रतिमास दस-दस लाख गायों का दान देनेवाले से कुछ भी न देनेवाले संयमी का संयम श्रेष्ठ है। २. चीराजिणं नगिणिणं जडी-संघाडि - मुण्डिणं । याणि वि न तायंति दुस्सीलं परियागयं । । (उ०५ : २१) वल्कल के चीर, मृग चर्म, नग्नत्व, जटा, संघाटी, सिर मुण्डन इत्यादि नाना वेष दुराचारी पुरुष की जरा भी रक्षा नहीं कर सकते । ३. पिण्डोलए व दुस्सीले नरगाओ न मुच्चई | भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं । । (उ०५ : २२) भिक्षा माँगकर जीवन चलाने वाला भिक्षु भी अगर दुराचारी है तो दुराचारी है तो नरक से नहीं बच सकता । भिक्षु हो या गृहस्थ, जो सुव्रती - सदाचारी होता है वह स्वर्ग को प्राप्त करता है ।

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