Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 380
________________ ३५५ ३७. दर्शन १३. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्त्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।। (नि० सा० ६) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छः मूल तत्त्व हैं। ये अपने.अपने अनेक गुण और पर्यायों से सहित होते हैं। ५. लोक और द्रव्य १. जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए।। (उ० ३६ : २) आकाश के उस भाग को, जिसमें जीव-अजीव दोनों हैं, लोक कहा गया है और उस भाग को, जहाँ केवल अजीव का देश-आकाश ही है और कोई जीव अजीव द्रव्य नहीं, उसे अलोक कहा गया है। २. धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं।। (उ० २८ : ७) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल ये पाँच अजीव और छट्ठा जीव ये छः द्रव्य हैं। यह जो षट् द्रव्यात्मक है, वहीं लोक है-ऐसा श्रेष्ठ दर्शन के धारक जिन भगवान् ने कहा है। ३. गुणाणमासओ दवं एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।। (उ० २८ : ६) गुण जिसके आश्रित होकर रहें-जो गुणों का आधार हो-उसे द्रव्य कहते हैं। किसी एक द्रव्य का आश्रय कर जो रहें वे गुण हैं तथा द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होना पर्याय का लक्षण है। ४. गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणो। भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ।। (उ० २८ : ६) पदार्थों की गति में सहायक होना यह धर्म का लक्षण है, उनकी स्थिति में सहायक होना यह अधर्म द्रव्य का लक्षण है और सर्व द्रव्यों को अपने में स्थान देना यह आकाश का लक्षण है। ५. वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य।। (उ० २८ : १०)

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