Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 388
________________ ३७. दर्शन ३६३ जैसे सेंध के मुंह पर पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्मों के कारण छेदा जाता है, उसी तरह से जीव इस लोक या परलोक में अपने कृत कर्मों के कारण ही पीड़ित होता है। १०. तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागे वियाणिया । एएसिं संवरे चेव खवणे य जए बुहे ।। (उ० ३३ : २५) अतः इन कर्मों के अनुभाग - फल देने की शक्ति को समझकर बुद्धिमान पुरुष नये कर्मों के संचय को रोकने में तथा पुराने कर्मों के क्षय करने में सदा यत्नवान् रहे। ११. सुक्कमूले जहा रुक्खे सिंचमाणे ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति मोहणिज्जे खयं गए । । ( दशा० ५ : १४) जिस तरह मूल सूख जाने के बाद सींचने पर भी वृक्ष हरा-भरा नहीं होता, उसी तरह से मोह कर्म के क्षय हो जाने के बाद कर्म उत्पन्न नहीं होते । १२. जहा दड्ढाणं बीयाणं ण जायंति पुणअंकुरा । कम्मबीएस दड्ढेसु न जायंति भवंकुरा ।। (दशा० ५ : १५) जिस तरह दग्ध बीजों में से पुनः अंकुर प्रगट नहीं होते, उसी तरह से कर्मरूपी बीजों के दग्ध हो जाने से भव- अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं । १०. लेश्या ' १. किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा उ नामाई तु जहक्कमं । । ( उ० ३४ : ३) यथाक्रम से लेश्याओं के ये नाम हैं - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेजस्, (५) पद्म और (६) शुक्ल । २. पंचासवप्पवत्तो तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओ य । तिव्वारम्भपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो ।। निद्वंधसपरिणामो निस्संसो एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे । । (उ० ३४ : २१-२२) अजिइंदिओ । १. २. ३. प्राणी के उस भाव को लेश्या कहते हैं जिससे जीव अपने-आपको पुण्य और पाप से लिप्त करता है । लिप्पइअप्पीकीरइ एयाए णिय य पुण्यपावं च । जीवोत्ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया । । मिलावें गो०जी० ४६२ । उ० से प्रस्तुत लेश्याओं के इस वर्णन के साथ मिलायें दिगम्बर ग्रंथ पंचसंग्रह वर्णित वर्णन । (१ : १४४ - १५२)

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