Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ३७. दर्शन ३६५ तहा पयणुवाई य उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो पम्हलेसं तु परिणमे ।। (उ० ३४ : २६-३०) जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समाधियुक्त है, उपधान करनेवाला है, अत्यल्प भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-जो इन सभी योगों से युक्त है, वह पद्मलेश्या में परिणत होता है। ७. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं।। सरागे वीयरागे वा उपसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे।। (उ० ३४ : ३१-३२) जो मनुष्य आर्त और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-जो इन सभी योगों से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या में परिणत होता है। ८. किण्हा णीला काओ लेस्साओ तिण्णि अप्पसत्थाओ। पइसइ विरायकरणो संवेगमणुत्तरं पत्तो ।। (भग० आ० १६०८) कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अप्रशस्त लेश्याएँ हैं। इनका त्याग कर मनुष्य अनुत्तर संवेग को प्राप्त होता है। ६. तेओ पम्मा सुक्का लेस्साओ तिण्णि विदुपसत्थाओ। पडिवज्जेइय कमसो संवेगमणुत्तरं पत्तो।। __(भग० आ० १६०६) तेजो, पद्म और शुक्ल-ये तीन प्रशस्त लेश्याएँ हैं। इन्हें क्रमशः प्राप्त कर मनुष्य अनुत्तर संवेग को प्राप्त होता है। १०. किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो दुरगई उववज्जई बहुसो।। तेऊ पम्हा सक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवों सुग्गइं उववज्जई बहुसो।। (उ० ३४ : ५६-५७) कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों अधर्म-लेश्याएँ हैं। इन तीनों से जीव दुर्गति को प्राप्त होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410