Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 395
________________ ३७० महावीर वाणी १४. चिच्चा ओरालियं बोंदि नामगोयं च केवली। आउयं वेयणिज्ज च छित्ता भवति नीरए।। (दशा० ५ : १६) केवली भगवान् इस शरीर को छोड़कर तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म का छेदन कर कर्म-रज से सर्वथा रहित होता है। १५. एवं अभिसमागम्म चित्तमादाय आउसो। सेणि-सुद्धिमुवागम्म आया सुद्धिमुवागई।। (दशा० ५ : १७) हे शिष्य ! इस प्रकार समाधि के भेदों को जान, राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण करने से शुद्धि-श्रेणी को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है। १३. सिद्धि-क्रम १. जया जीवे अजीवे य दो वि एए वियाणई। तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई।। (द० ४ : १४) जब मनुष्य जीव और अजीव-इन दोनों को अच्छी तरह जान लेता है तब सब जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। २. जया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई। . तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई।। (द० ४ : १५) ___ जब मनुष्य सर्व जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है तब पुण्य, पाप, बन्ध, और मोक्ष भी जान लेता है। ३. जया पुण्यं च पाव च बंधं मोक्खं च जाणई। तया निविदए भोए जे दिवे जे य माणुसे।। (द० ४ : १६) जब मनुष्य पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को जान लेता है तब जो भी देवों और मनुष्यों के काम-भोग हैं, उन्हें जानकर उनसे विरक्त हो जाता है। ४. जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं सभितबाहिरं।। (द० ४ : १७) " जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह अन्दर ‘और बाहर के संयोग-सम्बन्धों को छोड़ देता है।

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