Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 398
________________ ३७. दर्शन ३७३ जैसे कोई म्लेच्छ नगर की अनेक विध विशेषता को देख चुकने पर भी वहां-जंगल में-उपमा न मिलने से उनका वर्णन नहीं कर सकता, इसी तरह सिद्धों का सुख अनुपम होता है। उसकी तुलना नहीं हो सकती। ५. जह सव्वकामगणियं परिसो भोत्तण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ।। इय सव्वकालतित्ता अउलं निव्वणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ।। (औ० १६५ : १८, १६) जिस प्रकार सर्व प्रकार के पांचों इन्द्रियों के भोगों को प्राप्त हुआ मनुष्य भोजन कर, क्षुधा और प्यास से रहित हो अमृत पीकर तृप्त हुए मनुष्य की तरह होता है, उसी तरह अतुल निर्वाण प्राप्त सिद्ध तृप्त होते हैं। वे शाश्वत सुख को प्राप्त कर अव्याबाधित सुखी रहते हैं। ६. सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। उम्मुक्क-कम्म-कवया अजरा अमरा असंगा य।। (औ० १६५ : २०) सर्व कार्य सिद्ध होने से वे सिद्ध हैं, सर्व तत्त्व के पारगामी होने से बुद्ध हैं, संसारसमुद्र को पार कर चुके होने से पारंगत हैं, हमेशा सिद्ध रहेंगे इससे परंपरागत हैं। .. वे कर्म-बन्धन से मुक्त हैं, वे अजर, अमर और निःसंग हैं। ७. णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं अणुहोंती सासयं सिद्धा।। (औ० १६५ : २१) वे सब दुःखों को छेद चुके होते हैं। वे जन्म, जरा और मरण के बन्धन से विमुक्त होते हैं। वे अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं और शाश्वत सिद्ध होते हैं। . ८. अतुलसुहसागरगया अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता। सव्वमणागयमद्धं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता।। (औ० १६५ : २२) वे अतुल सुख-सागर को प्राप्त होते हैं, वे अनुपम अव्याबाध सुख को प्राप्त हुए होते हैं। अनन्त सुख को प्राप्त हुए वे अनन्त सुखी वर्तमान अनागत सभी काल में वैसे ही सुखी रहते हैं।

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