Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 399
________________ ३७४ महावीर वाणी १५. मुक्तात्मा और निर्वाण १. जाइ-जर-मरण-रहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेज्जं।। (नि० सा० १७७) मुक्त आत्मा जन्म, जरा और मरण से रहित है। यह उत्कृष्ट, आठ कर्मों से रहित और शुद्ध है। वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य-इन चार आत्मिक स्वभावों से युक्त है। वह क्षयरहित, विनाशरहित तथा अछेद्य है। २. अव्वावाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं। पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालम्ब ।। (नि० सा० १७८) मुक्त आत्मा बाधा-रहित है, अतीन्द्रिय है, अनुपम है, पुण्य और पाप से निर्मुक्त है, पुनः संसार में आगमन से रहित है, नित्य है, अचल है, अनालम्बन है। ३. णवि दुःक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। (नि० सा० १७६) जहाँ न तो कोई दुःख है, न सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है और न जन्म है, वहीं निर्वाण है। ४. विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं । केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ।। (नि० सा० १८२). मुक्तात्मा में केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, अमूर्तत्व, अस्तित्व और प्रदेशत्व-ये गुण रहते हैं। ५. णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुट्ठिा। कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोग्गपज्जंतं ।। (नि० सा० १८३) मुक्त जीव ही निर्वाण है और निर्वाण ही मुक्त जीव है, ऐसा कहा है। जो आत्मा कर्मों से मुक्त होती है, वह मुक्त होते ही ऊपर लोक के अग्र भाग तक जाती है। ६. जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मत्थिकायऽभावे तत्तो परदो ण गच्छंति।। (नि० सा० १८४) जहाँ तक धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य है वहीं तक जीव और पुगदलों का गमन जानो। लोक के अग्रभाग से आगे धर्मास्तिकाय नामक द्रव्य का अभाव है। इसलिए उससे आगे मुक्त जीव नहीं जाते।

Loading...

Page Navigation
1 ... 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410