Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 386
________________ ३७. दर्शन ३६१ देह से संयुक्त होने पर भी यह जीव आँख से नाना प्रकार के रंगों को देखता है, कानों से नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हैं, जीभ से नाना प्रकार के भोजनों का आस्वाद लेता है और देह से मिला हुआ होने पर भी चलता है । ६. कर्मवाद १. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । अज्झत्थहेउं निययऽस्स बंधो संसारहेउं च वयंति बंधं । । आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है- उनसे नहीं जाना जाता। अमूर्त होने के कारण ही आत्मा नित्य है । यह निश्चय है कि अज्ञान आदि आत्मा के दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और कर्म-बन्धन ही संसार का कारण कहलाता है। २. अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आणुपुव्विं जहक्कमं । जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तए । । ( उ० ३३ : १) जिन कर्मों से बँधा हुआ यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है, वे संख्या में आठ हैं। मैं अनुपूर्वी से यथाक्रम उनका वर्णन करूँगा । १. २. ( उ० १४ : १६) दंसणावरणं तहा । ३. नाणस्सावरणिज्जं वेयणिज्जं तहा मोहं आउकम्मं तहेव य । । नामकम्मं च गोयं च अंतरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माई अट्ठेव उ समासओ ।। (उ० ३३ : २-३) (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय - ये संक्षेप में आठ कर्म हैं । ४. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि एसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं । । ( उ० ३३ : १८) सर्व जीव आत्मा से संलग्न छहों दिशाओं में रहे हुए कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्व प्रदेशों के साथ सर्व कर्म सर्व प्रकार से बद्ध होते हैं। कर्म का अर्थ साधारण तौर पर 'क्रिया' किया जाता है, परन्तु यहाँ पर कर्म का अर्थ क्रिया नहीं है। जैन परिभाषा में, क्रिया से आत्म-प्रदेशों के साथ जिन पुद्गल-स्कन्धों का सम्बन्ध होता है, उन्हें कर्म कहते हैं। आत्मा के साथ इस प्रकार बँधे हुए जड़ कर्म भिन्न-भिन्न प्रकृति के स्वभाव के होते हैं । समभाव के भेद से कर्मों के ज्ञानावरणीय आदि आठ वर्ग होते हैं। इन आठ कर्मों के अर्थ के लिए देखिए परिच्छेद के अन्त की टिप्पणी पृ० ३७५ ।

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