Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 376
________________ ३५१ ३७. दर्शन ६. सेयासेयविदण्हू उद्ददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणमुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ।। (द० पा० १६) श्रेय और अश्रेय को जाननेवाला मनुष्य दुःशील को छोड़ देता है। वह शीलवान् हो जाता है। शील के फलस्वरूप उसे आत्मिक अभ्युदय प्राप्त होता है। उससे फिर वह निर्वाण को प्राप्त करता है। ७. इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खम्स।।' (भा० पा० १४५) इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के गुण और दोष को जानकर सम्यक्त्व रूप रत्न को शुद्ध भाव से धारण करो, जो सम्पूर्ण गुण-रत्नों में उत्तम है और मोक्ष का प्रथम सोपान है। ८. सम्मत्तविरहिया णं सुठू वि उग्गं तवं चरंता णं। ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।। (द० पा० ५) सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य भले प्रकार से कठोर तपश्चरण भी करें तो भी हजार करोड़ों वर्षों में भी उन्हें सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ६. सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।। (द० पा० ४) जो सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं वे अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हए भी दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप की आराधना से रहित होने के कारण नरकादि गतियों में ही भ्रमण करते रहते हैं। १०. दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिज्झति चरियभट्ठा सणभट्ठा ण सिझंति।। (द० पा० ३) जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ही भ्रष्ट हैं। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य का निर्वाण नहीं होता। जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं वे (कालान्तर से) मोक्ष को प्राप्त होते हैं; किंतु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। ११. जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ। संवओ लोयअपुओ लोउत्तरयम्मि चलसवओ।।(भा० पा० १४१) लोक में जीवरहित शरीर को मुर्दा कहते हैं, किन्तु जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह चलता.फिरता मुर्दा है। मुर्दा लोक में अपूज्य माना जाता है और चलता.फिरता मुर्दा लोकोत्तर पुरुषों में अथवा परलोक में अपूज्य माना जाता है (इसे नीच गति में जन्म लेना पड़ता है)। १. मू० ६०४।

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