Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 366
________________ ३६. श्रमण - शिक्षा ३४१ वे हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुखपूर्वक रहते और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। २. चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जई किंचि अप्पियं पि न विज्जए । । (उ०६ : १५) जो भिक्षु पुत्र और कलत्र को छोड़ चुका और जो व्यापार से रहित है, उसके लिए कोई चीज प्रिय नहीं होती और न कोई अप्रिय । ३. बहुं खु मुणिणो भद्दं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगंतमणुपस्सओ ।। ( उ०६ : १६) सर्व प्रकार से मुक्त है, 'कोई किसी का नहीं होता' - इस प्रकार एकान्तदर्शी है, जो गृह-मुक्त है, जो भिक्षु है, उस मुनि को सदा विपुल भद्र (कल्याण) है । ४. छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुव्वाइं वासाइं चरप्पमत्तो तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ।। ( उ०४ : ८) स्वच्छन्दता के विरोध से जीव उसी प्रकार मोक्ष प्राप्त करता है जिस प्रकार शिक्षित कवचधारी योद्धा युद्ध में विजय । अतः मुनि पूर्व जीवन में अप्रमत्त होकर रहे। ऐसा कार्य करने से वंचित कर्मों से छुटकारा पाकर वह शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है । ५. मंदा य फासा बहु-लोहणिज्जा तह-प्पगारेसु मणं न कुज्जा । रक्खेज कोहं विणएज्ज माणं मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं || ( उ० ४ : १२ ) बुद्धि को मन्द करनेवाले और बहुत लुभानेवाले स्पर्शों में साधु अपने मन को न लगावे । क्रोध को दूर से ही छोड़े, मान को जीते, कपट का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे। ६. मुहुं मुहुं मोह-गुणे जयंतं अणेग-रूवा समणं फासा फुसंतो असमंजसं च न तेसु भिक्खू मणसा चरंतं । पउस्से । । (उ० ४ : ११) A बार-बार मोह. गुण को जीतकर चलनेवाले श्रमण को जीवन में अनेक प्रकार के दुःखदायी स्पर्श पीड़ित करते हैं । भिक्षु उन पर मन से भी प्रद्वेष न करे । १. राजर्षि नमि; जो एक समय मिथिला के स्वामी थे, का साधु होने के बाद इन्द्र के प्रति यह कथन है। 'मिथिला जल रही है' ऐसा दृश्य बताकर इन्द्र नमि से कहता है कि तुम वापस जाओ और मिथिला को पूर्ववत् सम्हालो । नमि राजर्षि इसका उत्तर दे रहे हैं।

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