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११. विजय-पथ
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१३. जा उ अस्साविणी नावा न सा पारस्स गामिणी।
जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी।। (उ० २३ : ७१)
जो नौका छेद-युक्त होती है, वह पार पहुंचने वाली नहीं होती। जो नौका छेद-रहित होती है, वही पार पहुंचने वाली होती है। १४. सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरंति महेसिणो।। (उ० २३ : ७३)
शरीर को नौका कहा गया है। जीव को नाविक कहा गया है। संसार को समुद्र कहा गया है। जीव-रूपी नाविक के द्वारा शरीर-रूपी नौका को खेकर महर्षि जन्म-मरण रूपी इस महा अर्णव को तैर जाते हैं। १५. अत्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं ।
जल्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा।। (उ० २३ : ८१) . लोकाग्र पर एक ऐसा दुरारोह ध्रुव स्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है। १६. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धि लोगग्मेव य।
खेमं सिवं अणाबाहं जं चरंति महेसिणो।। (उ० २३ : ८३)
यह स्थान निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र आदि नाम से प्रख्यात है। इस क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान को महार्षि पाते हैं। १७. तं ठाणं सासयंवासं लोगग्गंमि दुरारुहं ।
जं संपत्ता न सोयंति भवोहंतकारा मुणी।। (उ० २३ : ८४)
हे भव-परम्परा का अन्त करने वाले मुने ! यह स्थान आत्मा का शाश्वत वास है। यह लोक के अग्रभाग में है। जन्म, जरा आदि से दुरारोह है। इसे प्राप्त कर लेने पर किसी तरह का दुःख नहीं रह जाता और भव-परम्परा का अन्त हो जाता है।
२. तृष्णा-विजय १. कसिणं पि जो इमं लोयं पडिंपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। तेणावि से न संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया।।
(उ० ८ : १६) धन-धान्य आदि से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी किसी एक मनुष्य को दे दिया जाए, तो भी वह सन्तुष्ट नहीं होता। इतनी दुष्पूर है यह आत्मा।