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महावीर वाणी
मन अंधे, वधिर और मूक मनुष्य की तरह होता है। उसे किसी बात में लगाने पर वह शीघ्र ही वहाँ से हट जाता है। गिरि से निकली हुई सरिता के स्रोत की तरह मन की दिशा को मोड़ना दुष्कर होता है। ११. जह्मि य वारिदमेत्ते सव्वे संसारकारया दोसा।
णासंति रोगदोसादिया हु सज्जो मणुस्सस्स।। (भग० आ० १३८)
इस मन के निग्रह मात्र से ही संसार के कारणभूत राग, द्वोष, शीघ्र ही नाश को प्राप्त होते हैं। १२. इय दुठ्ठयं मणं जो वारेदि पडिठ्ठवेदि य अकंपं ।
सुहसंकप्पपयारं च कुणदि सज्झायसण्णिहिदं ।। (भग० आ० १३६)
जो इस दुष्ट मन का रागादि से निवारण करता है, उसे अकंपित रूप से शुभ संकल्प रूप प्रवृत्ति और स्वाध्याय में लगाता है, उसके समाधि होती है। १३. उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण ।
तह हिदयकिण्हसप्पो सुठुवजुत्तेण णाणेण ।। (भग० आ० ७६२)
जैसे विधि से प्रयुक्त मंत्र द्वारा कृष्ण सर्प उपशांत होता है, उसी तरह सुप्रयुक्त ज्ञान के द्वारा मनरूपी कृष्ण सर्प शान्त होता है।
५. इन्द्रिय-विजय
१. चक्खू सोदं घाणं जिब्मा फासं च इंदिया पंच।
सगसगविसएहिंतो णिरोहियव्वा सया मुणिणा।। (मू० १६)
चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन-इन पाँच इन्द्रियों को क्रमशः अपने-अपने विषय-रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श से ज्ञानी पुरुष को सदा रोकना चाहिए।
२. एदे इंदियतुरया पयदीदोसेण चोइया संता। - उम्मग्गं ऐति रहं करेह मणपग्गहं वलियं ।। (मू० ८७६)
ये इन्द्रियरूपी घोड़े रागद्वेष द्वारा स्वाभाविक रूप से प्रेरित होकर आत्मारूपी रथ को कुमार्ग पर ले जाते हैं। इसलिए मनरूपी लगाम को मजबूती से पकड़े रहो। ३. अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेण्हिदुं ण तीरंति।
विज्जामंतोसधहीणेण व आसीविसा सप्पा।। (भग० आ० १८३८)