Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 300
________________ ३२. श्रामण्य और प्रव्रज्या ३. बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदि सजोग्ग मूलच्छेदो जथा ण हवदि | | ( प्रव०३ : ३०) श्रमण बालक हो या वृद्ध अथवा श्रम से थका हुआ हो या रोगी हो, उसे अपनी चर्या का पालन इस प्रकार करना चाहिए जिससे मूल संयम का छेद न हो । ४. एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।। २७५ (प्रव० ३ : ३२ ) श्रमण एकाग्रचित्त होता है और एकाग्रचित्त वही होता है जिसे अर्थों का निश्चय होता है तथा अर्थों का निश्चय आगम से होता है, इसलिए आगम का अभ्भास करना ही श्रमण का प्रमुख कर्त्तव्य है । ५. आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किह समणो ।। ( प्रव०३ : ३६) 'इस लोक में जिसके शास्त्रज्ञानपूर्वक सम्यग्दर्शन नहीं होता, उसके संयम भी नहीं होता' ऐसा आगम कहता है। और, जो असंयमी है वह श्रमण कैसे हो सकता है ? समसुहदुक्खोपसंसणिंदसमो । ६. समसत्तुबंधुवग्गो समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो । । (प्रव० ३ : ४१ ) शत्रु और बंधुवर्ग में सम है, सुख और दुःख में सम है, निन्दा और प्रशंसा में सम है, मिट्टी के ढेले और सुवर्ण में सम है तथा जीवन और मरण में सम है वही श्रमण है। ७. दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुठ्ठिदो जो दु । एयग्गगदोत्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं । । ( प्रव० ३ : ४२) जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों में एक साथ उपस्थित है वह एकाग्रचित्त माना गया है। जो इस तरह एकाग्रचित्त है उसी का श्रामण्य परिपूर्ण है। ८. मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं | | ( प्रव० ३ : ४३) यदि श्रमण परद्रव्य को लेकर मोह करता है अथवा राग करता है अथवा द्वेष करता है तो वह अज्ञानी अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है। ६. अठ्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि । । ( प्रव० ३ : ४४ )

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