Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 349
________________ ३२४ महावीर वाणी २. णो सक्का रूवमदटटुं चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए।। (आ० चू० २, १५ : ७३) रूप चक्षु का विषय है। आँखों के सामने आये हुए रूप को न देखना शक्य नहीं। भिक्षु आँखों के सामने आये हुए रूप में राग-द्वेष का परित्याग करे। .. ३. णो सक्का ण गंधमग्घाउं णासाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए ।। (आ० चू० २, १५ : ७४) गंध नाक का विषय है। नाक के समीप आई गंध को न सूंघना शक्य नहीं। भिक्षु नाक के समीप आई हुई गंध में राग-द्वेष का परित्याग करे । ४. णो सक्का रसमणासाउं जीहाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए।। (आ० चू० २, १५ : ७५) __रस जिा का विषय है।। जिहा पर आये हुए रस का आस्वाद न लेना शक्य नहीं। भिक्षु जिहा पर आये हुएरस में राग-द्वेष का परित्याग करे। ५. णो सक्का ण संवेदेउं फासविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए।। (आ० चू० २, १५ : ७६) स्पर्श शरीर का विषय है। स्पर्श विषय के उपस्थित होने पर उसका अनुभव न करना शक्य नहीं। स्पर्श विषय के उपस्थित होने पर भिक्षु उसमें राग-द्वेष का परित्याग करे। [२] ६. जे न वंदे न से कुप्पे वंदिओ न समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठई।। (द० ५ (२) : ३०) जो वन्दना न करे उस पर कोप न करे, वन्दना करने पर उत्कर्ष (गर्व) न लाए। इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि का श्रामण्य निर्वाध भाव से टिकता है। ७. सयणासण वत्थं वा भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ।। (द० ५ (२) : २८) संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे। ८. लद्धे ण होति तुट्ठा णवि य अलद्धेण दुम्मणा होति। दुक्खे सुहेसु मुणिणो मज्झत्थमणाकुला होति।। (मू० ८१६)

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