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महावीर वाणी
क्रोधग्रस्त मनुष्य नीलवर्ण हो जाता है। उसके चेहरे की प्रभा नष्ट हो जाती है। वह अरतिरूप अग्नि से जलने लगता है। शीतकाल में भी उसे प्यास लगने लगती है तथा पिशाचग्रस्त मनुष्य की तरह वह काँपने लगता है।
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२. जह कोइ तत्तलोहं गहाय रुट्ठो परं हणामित्ति । पुव्वदरं सो डज्झदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो । । तध रोसेण सयं पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा ।।
(भग० आ० १३६२-६३)
जैसे कोई दूसरे पर रुष्ट मनुष्य अपने हाथ में तप्त लोहे को लेकर उसे मारने का विचार करता है, तो पहले वह स्वयं ही दग्धं होता है; दूसरा पुरुष दग्ध हो भी सकता अथवा नहीं भी। वैसे ही क्रोध से क्रोधी पुरुष पहले स्वयं ही दग्ध होता है, फिर दूसरे को दुःखी कर सके या न भी कर सके ।
३. णासेदूण कसायं अग्गी णासदि सयं जधा पच्छा ।
णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोधो | | ( भग० आ० १३६४ )
जैसे अग्नि आधारभूत ईंधन को पहले जलाकर उसके पश्चात् स्वयं भी नष्ट हो जाती है, वैसे ही क्रोध आधारभूत व्यक्ति - क्रोधी का पहले नाश कर उसके पश्चात् स्वयं नाश को प्राप्त होता है ।
४. कोधो सत्तुगुणकरो णियाणं अप्पणो य मण्णुकरो ।
परिभवकरो सवासे रोसे णासेदि णरमवसं | | ( भग० आ० १३६५)
क्रोध शत्रु का उपकार करनेवाला होता है। क्रोध क्रोधी और उसके बाँधवों के लिए शोकजनक होता है। क्रोध जिस मनुष्य में बसता है, उसके पराभव का कारण होता है और अपने वश में हुए व्यक्ति का नाश कर देता है।
५. ण गुणे पेच्छादि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च । रोसेण रुद्दहिदओ णारगसीलो णरो
होदि । ।
(भग० आ० १३६६ )
क्रोध आने पर मनुष्य दूसरों के गुणों को नहीं देखता, दूसरों के गुणों की निन्दा करने लगता है। क्रोध से मनुष्य नहीं कहने लायक बात कह डालता है। क्रोध से मनुष्य रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारकीय जैसा हो जाता है।
६. जध करिसयस्स धण्णं वरिसेण समज्जिदं खलं पत्तं । डहदि फुलिंगो दित्तो तध कोहग्गी समणसारं । ।
(भग० आ० १३६७)