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महावीर वाणी
१२. माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलहभयवेरदुक्खाणि । पावदि माणी णियदं इहपरलोए य अवमाणं ।।
(भग० आ० १३७७) अभिमानी सबका द्वेषपात्र हो जाता है। मानी मनुष्य इहलोक और परलोक में कलह, भय, वैर, दुःख और अपमान को अवश्य ही प्राप्त होता है। १३. होदि य वेस्सो अप्पच्चइदो तध अवमदो य सुजणस्स। होदि अचिरेण सत्तू णीयाणवि णियडिदोसेण ।।
(भग० आ० १३८३) माया-दोष से मनुष्य द्वेष का पात्र होता है तथा अविश्वसनीय हो जाता है। स्वजनों के भी अपमान का पात्र होता है। माया-दोष के कारण बांधव भी शीघ्र ही उसके शत्रु हो जाते हैं। १४. मायाए मित्तभेदे कदम्मि इधलोगिगच्छपरिहाणी।
णासदि मायादोसा विसजुददुद्धव सामण्णं ।। (भग० आ० १३८५)
माया से मैत्री का नाश होता है, जिससे इहलौकिक कार्य की हानि होती है। माया-दोष श्रामण्य का वैसे ही नाश कर देती है, जैसे विषयुक्त दूध प्राणों का नाश करता है। १५. कोहो माणो लोहो य जत्थ माया वि तत्थ सण्णिहिदा। कोहमदलोहदोसा सव्वे मायाए ते होंति ।।
__(भग० आ० १३८७) । जहाँ माया होती है, वहाँ क्रोध, मान और लोभ भी उपस्थित रहते हैं। माया में क्रोध, मद और लोभ से उत्पन्न सभी दोष रहते हैं। १६. लोभेणासाघत्तो पावइ दोसे बहुं कुणदि पावं।
णिए अप्पाणं वा लोभेण णरो ण विगणेदि।। (भग० आ० १३८६)
लोभ से आशाग्रस्त होकर मनुष्य अनेक दोषों को प्राप्त होता है और पाप करता है। लोभाधीन मनुष्य न अपने कुटुम्ब की परवाह करता है और न अपनी। १७. लोभो तणे वि जादो जणेदि पावमिदत्थ कि वच्चं । लगिदमउडादिसंगस्स वि हु ण पावं अलोहस्स।।
(भग० आ० १३६०) एक तृण में भी उत्पन्न लोभ पाप उत्पन्न करता है, तब अन्य वस्तुओं के लोभ से पाप उत्पन्न हो, इसका तो कहना ही क्या ? जो लोभी नहीं है, उसके सिर पर मुकुट भी धर दिया जाय, तो उसको पाप नहीं होता।