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महावीर वाणी
क्रोध से मनुष्य अधः की ओर जाता है, मान से अधोगति होती है, माया से सद्गति का विनाश होता है और लोभ से दोनों प्रकार का - इहलौकिक और पारलौकिक - भय होता है।
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२४. कोहं च माणं च तहेव मायं चउत्थं रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं मायं न सेवे
अज्झत्तदोसा । पयेज्ज लोहं । ।
क्रोध, मान, माया और लोभ - ये आत्मस्थ - दोष हैं। मुमुक्षु क्रोध का वर्जन करे, मान का दमन करे, माया का सेवन न करे और लोभ को त्याग दे I
२५. कोहं माणं निगिणिहत्ता मायं लोभं च सव्र्वसो । इंदियाइं वसे काउं अप्पाणं उवसंहरे ।।
(सू० १, ६ : २६) ( उ० ४ : १२)
( उ० २२ : ४५ के बाद)
क्रोध, मान, माया और लोभ का सर्व प्रकार से निग्रह करो । इन्द्रियों को वश में करो । आत्मा को अनाचार से हटाओ ।
२६. होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो तध ण पित्तउम्मत्तो । ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जधुम्मत्तो ।।
२७. णिच्चं पि अमज्झत्थे तिकालविसयाणुसरणपरिहत्थे । संजमरज्जूहिं जदी बंधंति कसायमक्कडए । ।
(भग० आ० १३३१)
कषाय से उत्मत्त मनुष्य ही वास्तव में उन्मत्त होता है; पित्त से उन्मत्त मनुष्य उस प्रकार उन्मत्त नहीं होता। पित्त से उन्मत्त मनुष्य वैसा पाप नहीं करता, जैसा कषाय से उन्मत्त मनुष्य ।
(भग० आ० १४०४)
नित्य ही चंचल रहनेवाले और तीनों ही कालों में विषयों के अनुसरण करने में पटु कषायरूपी बन्दरों को संयमी पुरुष संयमरूपी रस्सियों से बाँध लेते हैं। २८. ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विष्फुरंतेण । दुज्जयपबलबलुद्धरकसायभड णिज्जिया जेहिं । । (भा० पा० १५६)
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वे ही पुरुष धीर वीर हैं, जिन्होंने चमकते हुए क्षमा और जितेन्द्रियतारूपी खड्ग से दुर्जय, प्रबल और बल से उद्दण्ड कषायरूपी योद्धाओं को जीत लिया है।