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११. विजय-पथ
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१८. तेलोक्केण वि चित्तस्स णिव्वुदी णत्थि लोभघत्थस्स। संतुट्ठो हु अलोभो लभदि दरिदो वि णिव्वाणं ।।
(भग० आ० १३६१) लोभग्रस्त मनुष्य के चित्त की तृप्ति तीनों लोकों के प्राप्त होने पर भी नहीं होती। किन्तु लोभरहित सन्तोषी मनुष्य दरिद्र होने पर भी निर्वाण-सुख को प्राप्त करता है।
(२) कषाय-विजय-मार्ग १६. कोहं माणं च मायं च लोभं च पापवड्ढणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो।। (द० ८ : ३६)
क्रोध, मान माया और लोभ-ये चारों दुर्गुण पाप की वृद्धि करने वाले हैं, जो अपनी आत्मा की भलाई चाहे, वह इन दोषों को शीघ्र छोड़े। २०. कोहो पीइं पणासेइ माणो विणयनासणो।
माया मित्ताणि नासेइ लोहो सव्वविणासणो।। (द० ८ : ३७)
क्रोध पारस्परिक प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करनेवाला है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सर्वगुणों का नाश करनेवाला है। २१. उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे।
मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे।।' (द० ८ : ३८)
क्रोध का हनन शान्ति से करे, मान को मार्दव से जीते, माया को ऋजुभाव से और लोभ को सन्तोष से जीते। २२. कोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोभो य पवड्ढमाणा। चत्तारि ए ए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स।।
(द० ८ : ३६) अनिगृहीत क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ-ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्मरूपी वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं (उन्हें कभी सूखने नहीं देते अर्थात् पुनः-पुनः जन्म-मरण के कारण हैं)। २३. अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई।
माया गईपडिन्घाओ लोभाओ दुहओ भयं ।। (द० ६ : ५४)
१. नि० सा० ११५:
कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जयदि ण खुए चउविहकसाए।।