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वीर्य
१. बालवीर्य : पंडितवीर्य
१. दुहा वेयं सुयक्खायं वीरियं ति पवुच्चई । किण्णु वीरस्स वीरितं ? केण वीरो त्ति वुच्चई ?
(सू० १, ८ : १)
वह जो वीर्य कहलाता है, दो प्रकार का कहा गया है। वीर पुरुष का वीर्य क्या है ? किस कारण वह वीर कहा जाता है ?
२. कम्ममेव पवेदेंति अकम्मं वा वि सुव्वया । एतेहिं दोहिं ठाणेहिं जेहिं दीसंति मच्चिया । ।
(सू० १,८ : २) सुव्रतसकर्म वीर्य और अंकर्म वीर्य - इस तरह दो प्रकार का वीर्य कहते हैं । ये दो स्थान हैं, जिनमें मृत्युलोक के सर्व प्राणी देखे जाते हैं।
३. पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं । तब्भावादेसओ वा वि बालं पंडियमेव वा । ।
( सू १,८ : ३) ज्ञानियों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतः प्रमाद के होने से बाल वीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डित वीर्य होता है।
४. सत्थमेगे सुसिक्खंति अतिवाताय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति पाणभूयविहेडिणो ।।
(सू १, ८ : ४)
कुछ लोग प्राणियों को मारने के लिए शस्त्र - विद्या सीखते हैं और कुछ प्राण और भूतों के घातक मंत्रों की आराधना करते हैं।
५. माइणो कट्टु मायाओ कामभोगे समारभे ।
हंता छेत्ता पगतित्ता आय- सायाणुगामिणो ।।
(सू १, ८ : ५)
मायावी पुरुष माया कर मन, वचन और काय से कामभोगों का सेवन करते हैं। जो अपने ही सुख के लिप्सु हैं, वे प्राणियों का हनन छेदन और कर्तन करनेवाले होते हैं।
६. मणसा वयसा चैव कायसा चेव अंतसो ।
आरतो परतो वा विदुहा वि य असंजता ।।
( सू १८ : ६)