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। महावीर वाणी
__असंयमी पुरुष मन, वचन और काया से अथवा मन से ही इस लोक और परलोक-दोनों के लिए तथा करने और कराने रूप-दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा करते हैं। ७. वेराई कुव्वती वेरी ततो वेरेहि रज्जती।
पावोवगा य आरंभा दुक्खफासा य अंतसो।। (सू १, ८ : ७)
वैरी-जीव-हिंसा करानेवाला पुरुष-वैर करता है। इससे दूसरों के वैर का भागी होता है तब पुनः वैर करता है। इस तरह वैर से वैर बँधता जाता है। सावद्य अनुष्ठान रूप आरम्भ (हिंसा-कार्य) फल देने के समय दुःखकारक होते हैं। ८. संपरायं णियच्छंति अत्तदुक्कडकारिणो।
रोगदोसस्सिया बाला पावं कुव्वंति ते बहुं ।। (सू १, ८ : ८)
मूर्ख-जीव राग-द्वेष के आश्रित हो अनेक पाप-कर्म करते हैं। जो इस तरह स्वयं दुष्कृत करते हैं, वे साम्परायिक कर्म का बन्धन करते हैं। ६. एतं सकम्मविरियं बालाणं तु पवेइयं ।
एत्तो अकम्मविरियं पंडियाणं सुणेह मे।। (सू १, ८ : ६)
यह बाल जीवों का सकर्म वीर्य कहा है। अब पण्डितों का अकर्म वीर्य मुझसे सुनो। १०. णेयाउयं सुयक्खातं उवादाय समीहते।
भुज्जो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तहा तहा।। (सू १, ८ : ११)
बालवीर्य पुनः-पुनः दुःखावास है। प्राणी बालवीर्य का जैसे-जैसे उपयोग करता है, वैसे-वैसे अशुभ होता है। सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप मार्ग मोक्ष की ओर ले जानेवाला कहा गया है। उसे ग्रहण कर पंडित मोक्ष के लिए उद्योग करता है। ११. दविए बंधणुम्मुक्के सव्वतो छिण्णबंधणे।
पणोल्ल पावगं कम्मं सल्लं कंतति अंतसो।। (सू १, ८ : १०)
जो राग-द्वेष से रहित है, जो कषायरूपी बंधन से मुक्त है, जो सर्वतः, स्नेह-बंधनों का छेदन कर चुका, वह पाप कर्मों को रोक, अपनी आत्मा में चुभे शल्य को समूल उखाड़ डालता है। १२. जं किंचुवक्कम जाणे आउक्खेमस्स अप्पणो।
तस्सेव अंतरा खिप्पं सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए।। (सू १, ८ : १५)
पंडित पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का क्षयकाल जाने तो उसके पहले ही शीघ्र संलेखना-रूप शिक्षा को ग्रहण करे।