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११. विजय - पथ
असंवृत मनवाले मनुष्य के द्वारा इन्द्रियरूपी सर्प वैसे ही वश में नहीं किये जा सकते, जैसे विद्या, मंत्र और औषधि से रहित मनुष्य के द्वारा आशीविष जाति के सर्प । ४. तह्मा सो उड्डहणो मणमक्कडओ जिणोवएसेण ।
रामेदव्वो णियदं तो सो दोसं ण काहिदि से ।। (भग० आ० ७६५)
इसलिए इधर-उधर उत्पथगामी मनरूपी बंदर को जिनेन्द्र के उपदेश मे सदा के लिए लगा देना चाहिए, जिससे वह किसी दोष को उत्पन्न न करे। ५. सुमरणपुंखा चिंतावेगा विसयविसलित्तरइधारा । मणधणुमुक्का इंदियकंडा विंधति पुरिसमयं ।।
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(भग० आ० १३६६ )
जिनके स्मरणरूपी पंख लगे हैं, जिनमें चिंतारूपी वेग है, जिनकी रतिधारा विषयरूपी विष से लिप्त है और जो मनरूपी धनुष के द्वारा छोड़े गये हैं, ऐसे इन्द्रियरूपी बाण मनुष्यरूपी मृग को बींध डालते हैं।
६. इंदियदुद्दंतस्सा णिग्घिप्पंति दमणाणखलिणेहिं । उप्पहगामी णिग्घिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया । ।
७. विसयाडवीए उम्मग्गविहरिदा सुचिरमिंदियस्सेहिं । जिणदिणिव्वुदिपहं धण्णा ओदरिय गच्छंति । ।
(भग० आ० १८३७)
इन्द्रियरूपी दुर्दान्त घोड़ों का दमन वैसे ही दम और ज्ञानरूपी लगाम से किया जाता है, जैसे उत्पथगामी घोड़े लगाम से वश में किये जाते हैं ।
(भग० आ० १८६१ )
विषयरूपी जंगल में इन्द्रियरूपी घोड़ों के द्वारा बहुत समय तक कुमार्ग में भ्रमाये गए वे पुरुष धन्य हैं, जो इन घोड़ों से उतरकर जिनेन्द्र के द्वारा निर्दिष्ट निर्वाण के मार्ग की ओर गमन करते हैं।
८. मण- इंदियाण विजई स सरूव-परायणो होउ । (द्वा० अ० ११२ ग घ ) जो मन और इन्द्रियों को जीतता है, वह स्वरूप परायण होता है ।
६. कषाय-विजय
(१) कषाय-दोष
१. रोसाइट्ठो णीलो हदप्पभो अरदिअग्निसंसत्तो ।
सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिट्ठो वा । । (भग० आ० १३६०)