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महावीर वाणी
५. आयावयाही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए।।
(द० २ : ५) ___ आतप का सेवन कर-अपने-आपको धूप में तपा। सुकुमारता का त्याग कर। विषय-वासना को दूर कर। निश्चय ही दुःख दूर होगा । अनिष्ट विषयों के प्रति द्वेष-भाव को छिन्न कर । इष्ट विषयों के प्रति राग-भाव का उच्छेद कर । ऐसा करने से तू (विषयाग्नि को शान्त कर) संसार में सुखी होगा।
४. मन-विजय
१. ण च एदि विणिस्सरि, मणहत्थी झाणवारिबंधणिदो। - बद्धो तह य पयंडो विरायरज्जूहिं धीरेहिं।। (उ० ८ : ११)
जैसे बंधनशाला में रज्जुओं से बँधा हुआ मस्त हाथी बाहर नहीं निकल सकता, वैसे ही धीर पुरुषों द्वारा वैराग्य रूपी रस्सियों से ध्यानरूपी बंधनशाला में बंधा हुआ प्रचंड मन बाहर नहीं जा सकता। २. भावविरदो दु विरदो ण दवविरदस्स सुग्गई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्यो तेण मणहत्थी।। (मू० ६८५)
जो भाव से (अंतरंग में) विरत है, वास्तव में वही विरत है। द्रव्यविरत (बाह्य में विरत) को सुगति प्राप्त नहीं होती। इसलिए विषयरूपी वन में क्रीडालंपट मन रूपी हाथी को वश में करना चाहिए। ३. तत्तो दुक्खे पंथे पाडेदुं दुवओ जहा अस्सो। वीलणमच्छोव्व मणो णिग्घेत्तुं दुक्करो धणिदं।। (भग० आo :
जैसे दुःखद मार्ग में गिरा देनेवाले अश्व को वश में करना दुष्कर है और जैसे वीलण नामक मत्स्य को पकड़ना दुष्कर है, वैसे ही मन को वश में करना भी अत्यन्त दुष्कर है। ४. जस्स य कदेण जीवा संसारमणंतयं परिभमंति।
भीमासुहगदिबहुलं दुक्खसहस्साणि पावंता।। (भग० आ० १३७)
मन ऐसा है कि जिसकी चेष्टा से जीव सहस्रों दुःखों को पाते हुए भयंकर एवं अशुभ गति बहुल इस अनंत संसार में परिभ्रमण करते हैं।