________________
११. विजय - पथ
६. गसियाई पुगलाई भवणोदरवत्तियाइं सव्वाइं । पत्तोसि तो ण तित्तिं पुणरूवं ताइं भुंजतो ।।
( भा० पा० २२)
हे जीव ! तूने इस लोक में स्थित सभी पुद्गलों का भक्षण किया और उनको बार-बार भोगता हुआ भी तृप्त नहीं हुआ ।
१०. तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाए पीडिएण तुमे । तो वि ण तहाछेओ जाओ चिंतह भवमहणं | |
७३
हे जीव ! तूने प्यास से दुःखी होकर तीनों लोकों का सारा जल पी लिया, फिर भी तेरी प्यास नहीं मिटी । अतः संसार का नाश करनेवाले रत्नत्रय का चिंतन कर ।
( भ० पा० २३)
३. काम-विजय
१. पक्खंदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं ।
च्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ।। ( उ० २२ : ४१ के बाद)
२. धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे । ।
अगन्ध कुल में उत्पन्न हुए सर्प जाज्वल्यमान, विकराल, धूमकेतु अग्नि में प्रवेश कर मरना पसन्द करते हैं, परन्तु वमन किये हुए विष को वापिस पीने की इच्छा नहीं करते ।
३. जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धो व्व हढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ।।
( उ० २२ : ४२)
हे कामी ! तू भोगी जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है ! इससे तो तेरा मर जाना श्रेय है । धिक्कार है तुझे !
( उ० २२ : ४४) अगर स्त्रियों को देखकर तू इस तरह प्रेम-राग किया करेगा, तो हवा से आहत हट' की तरह अस्थिरात्मा हो जायगा -चित्त-समाधि को खो बैठेगा।
४. समाए पेहाए परिव्वयंतो सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नोवि अहं पि तीसे इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।।
(द०२ : ४)
यदि समभावपूर्वक विचरते हुए भी कदाचित् यह मन बाहर निकल जाय तो यह विचार करते हुए कि वह मेरी और न मैं ही उसका हूँ, मुमुक्षु विषय-राग को दूर करे।
१. वनस्पति विशेष