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महावीर वाणी
६. भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया।
तमुद्धरित्त जहानायं विहरामि महामुणी।। (उ० २३ : ४८) __ भव-तृष्णा को लता कहा गया है, जो बड़ी ही भयंकर और भयंकर फलों को देने वाली है। उसे यथाविधि उच्छेदकर हे महामुने ! मैं न्यायपूर्वक विहार करता हूँ। ७. महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं ।
सिंचामि सययं देहं सित्ता नो व डहति मे।। (उ० २३ : ५१)
महामेघ से प्रसूत उत्तम जल को लेकर मैं सतत् सिंचन करता रहता हूँ। इस तरह सिंचन की हुई वे अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं। ८. कसाया अग्गिणो वुत्ता सुयसीलतवो जलं।
सुयधाराभिहया संता भिन्ना हु न डहंति मे।। (उ० २३ : ५३)
क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय हैं। इन्हें अग्नियाँ कहा गया है। श्रुत, शील, और तप शीतल जल है। श्रुतरूपी मेघ की जलधारा से निरन्तर आहत किये जाने के कारण छिन्न-भिन्न हुई ये अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती। ६. पधावंतं निगिण्हामि सुयरस्सीसमाहियं ।
न मे गच्छइ उम्मग्गं मग्गं ज पडिवज्जई।। (उ० २३ : ५६)
दुष्ट अश्व को मैंने श्रुत-ज्ञान रूपी लगाम के द्वारा अच्छी तरह बाँध रखा है। उन्मार्ग की ओर दौड़ने पर मैं उसे रोक लेता हूँ। इससे मेरा अश्व उन्मार्ग में नहीं जाता और ठीक मार्ग में ही चलता रहता है। १०. मणो साहसिओ भीमो दुट्ठसो परिधावई।
तं सम्मं निगिण्हामि धम्मसिक्खाए कंथगं ।। (उ० २३ : ५८)
मन ही यह साहसिक, रौद्र और दुष्ट अश्व है, जो चारों ओर दौड़ता है। मैं उसे धर्म की शिक्षा द्वारा कन्थक की तरह काबू में कर लेता हूँ। ११. अत्थि एगो महादीवो वारिमज्झे महालओ।
महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई।। (उ० २३ : ६६)
समुद्र के बीच एक विस्तृत महान् द्वीप है, जहाँ महान् उदक के प्रवाह की गति नहीं है। १२. जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं ।। __ (उ० २३ ६८)
जरा और मरणरूपी महा उदक के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, आचार गति (आश्रय) और उत्तम शरण है।