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विजय-पथ
१. रहस्य-भेद
१. एग जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं । ।
एक को जीत चुकने से मैंने पांच को जीत लिया; पांच को जीत लेने से मैंने दस को जीत लिया; और दसों को जीतकर मैं सभी शत्रुओं को जीत लेता हूँ ।
२. एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी ।।
( उ० २३ : ३८)
न जीती हुई आत्मा एक दुर्जय शत्रु है। क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार कषाय मिलकर पाँच और श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन - ये पाँच इन्द्रियाँ मिलकर दस शत्रु हैं। इन्हें ठीक रूप से जीतकर हे महामुने ! मैं न्यायानुसार विहरता हूँ ।
३. ते पासे सव्वसो छित्ता निहंतूण उवायओ । मुक्कपासो लहुब्भूओ विहरामि अहं मुणी ।।
( उ० २३ : ३६)
(उ० २३ : ४१)
हेमुने! संसारी प्राणियों के बँधे हुए पाशों का सर्व प्रकार और उपायों से छेदन और हनन कर मैं मुक्तपाश और लघुभूत होकर विहार करता हूँ ।
४. रागद्दोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा ।
ते छिंदितु जहानायं विहरामि जहक्कमं । ।
( उ० २३ : ४३)
मुने ! राग-द्वेषादि और स्नेह - ये तीव्र और भयंकर पाश हैं। उन्हें ठीक रूप से छेदकर मैं यथान्याय विहार करता हूँ ।
५. तं लयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं । ।
( उ० २३ : ४६ )
मैंने हृदय के अन्दर उत्पन्न विषलता को सर्व प्रकार से छेदन कर अच्छी तरह मूल सहित उखाड़ डाला है। इस तरह मैं विष - फल के खाने से मुक्त हो यथान्याय विहार करता हूँ ।