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________________ : ११ : विजय-पथ १. रहस्य-भेद १. एग जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं । । एक को जीत चुकने से मैंने पांच को जीत लिया; पांच को जीत लेने से मैंने दस को जीत लिया; और दसों को जीतकर मैं सभी शत्रुओं को जीत लेता हूँ । २. एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी ।। ( उ० २३ : ३८) न जीती हुई आत्मा एक दुर्जय शत्रु है। क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार कषाय मिलकर पाँच और श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन - ये पाँच इन्द्रियाँ मिलकर दस शत्रु हैं। इन्हें ठीक रूप से जीतकर हे महामुने ! मैं न्यायानुसार विहरता हूँ । ३. ते पासे सव्वसो छित्ता निहंतूण उवायओ । मुक्कपासो लहुब्भूओ विहरामि अहं मुणी ।। ( उ० २३ : ३६) (उ० २३ : ४१) हेमुने! संसारी प्राणियों के बँधे हुए पाशों का सर्व प्रकार और उपायों से छेदन और हनन कर मैं मुक्तपाश और लघुभूत होकर विहार करता हूँ । ४. रागद्दोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा । ते छिंदितु जहानायं विहरामि जहक्कमं । । ( उ० २३ : ४३) मुने ! राग-द्वेषादि और स्नेह - ये तीव्र और भयंकर पाश हैं। उन्हें ठीक रूप से छेदकर मैं यथान्याय विहार करता हूँ । ५. तं लयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं । । ( उ० २३ : ४६ ) मैंने हृदय के अन्दर उत्पन्न विषलता को सर्व प्रकार से छेदन कर अच्छी तरह मूल सहित उखाड़ डाला है। इस तरह मैं विष - फल के खाने से मुक्त हो यथान्याय विहार करता हूँ ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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