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________________ ६८ महावीर वाणी . जो जीव मद, माया और क्रोध से रहित है, लोभ से दूर है और निर्मल स्वभाव से युक्त है, वह उत्तम सुख को प्राप्त करता है। ७. विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो।। (मो० पा० ४६) जो जीव विषय और कषाय से युक्त है, रौद्र परिणामी है तथा जिसका मन परमात्मा की भावना से रहित है, वह जीव जिन-मुद्रा से विमुख होने के कारण मोक्ष-सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। ८. जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट्टा। सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ।। (मो० पा० ४७) जिनवर भगवान के द्वारा उपदिष्ट जिन-मुद्रा ही नियम से मोक्ष-सुख का कारण है। जिन्हें स्वप्न में भी यह जिन-मुद्रा नहीं रुचती वे जीव संसाररूपी गहन वन में पड़े रहते हैं। ६. ण कम्मुणा कम्म खति बाला अकम्मुणा कम्म खति धीरा। मेधाविणो लोभमया वतीता संतोसिणो णो पकरेंति पावं ।। (सू० १, १२ : १५) मूर्ख जीव सावद्य अनुष्ठान (पाप कार्यों) द्वारा संचित कर्मों का क्षय नहीं कर सकते। धीर पुरुष सावद्यानुष्ठान से विरत होकर कर्मों का क्षय करते हैं। प्रज्ञावान् पुरुष लोभ-भाव से सम्पूर्ण विरहित हो, संतोष-भाव धारण कर पाप कर्म नहीं करते। १०. डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे ते आततो पासइ सव्वलोगे। उवेहती लोगमिणं महंतं बुद्धप्पमत्तेसु परिव्वएज्जा ।। (सू० १, १२ : १८) इस जगत् में छोटे शरीरवाले भी प्राणी हैं और बड़े शरीरवाले भी। सारे जगत् को-इन सब को-आत्मवत् देखना चाहिए। इस लोक के सर्व प्राणियों को महान देखता हुआ तत्त्वदर्शी पुरुष प्रमत्तों में अप्रमत्त होकर रहे। ११. ते णेव कुवंति ण कारवेंति भूतभिसंकाए दुगुंछमाणा। सदा जता विप्पणमंति धीरा विण्णत्ति-वीरा य भवंति एगे।। (सू० १, १२ : १७) पापों से घृणा करनेवाले पुरुष, प्राणियों के घात की शंका से कोई पाप नहीं करते और न करवाते हैं। कई ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं क्रिया से नहीं, परन्तु धीर पुरुष सदा यत्नपूर्वक संयम में पराक्रम करते है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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