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________________ : १० : अनुस्रोत-प्रतिस्रोत १. अणुसोयसुहोलोगो पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो ।। (द० चू० २ : ३) लोगों को अनुस्रोत में - असंयम में सुख की प्रतीति होती है । सुविहित पुरुषों का संयम प्रतिस्रोत है। अनुस्रोत संसार है - संसार-समुद्र में बहना है । प्रतिस्रोत उतार है - संसार - समुद्र से पार होना है। २. अणुसोयपट्टिए बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो होउकामेणं ।। (द० चू० २ : २) बहुत से मनुष्य अनुस्रोतगामी होते हैं, पर जिनका लक्ष्य किनारे पहुँचना है, वे प्रतिस्रोतगामी होते हैं। जो संसार समुद्र से मुक्ति पाने की इच्छा करते हैं उन्हें प्रतिस्रोत (संयम) में आत्मा को स्थित करना चाहिए । ३. णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि । भवसागरं तु भविया तरंति तिहि सण्णिपायेण । । (मू० ८६८) ज्ञान निर्यापक है, ध्यान पवन है और चारित्र नौका है। इन तीनों के संयोग से भव्यजीव संसार - समुद्र को तैरते हैं । ४. णाणं पयासओ सोधओ तवो संजमो य गुत्तियरो । तिहंपि य संजोगे होदि ह जिणसासणे मोक्खो || (मू० ८६६) ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप शुद्धि करने वाला है, चरित्र रक्षक है। इन तीनों के संयोग से जिनमत में नियम से मोक्ष होता है। ५. णाणविण्णाणसंपण्णो झाणज्झणतवोजुदो । कसायगारवुम्मुक्को संसारं तरदे लहु ।। (मू० ६६८) जो ज्ञान और विज्ञान से सम्पन्न है, ध्यान, अध्ययन और तप से युक्त है तथा कषाय और गौरव से मुक्त है वह संसार-समुद्र को शीघ्र ही तैर जाता है । ६. मय - माय - कोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं ।। (मो० पा० ४५)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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