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________________ महावीर वाणी ७. एएणन्नेण वढेण परो जेणुवहम्मई। आयारभावदोसन्नू न तं भासेज्ज पन्नवं ।। (द० ७ : १३) आचार और भाव के दोषों को समझने वाला प्रज्ञावान् पुरुष उपर्युक्त या अन्य कोई भाषा जिससे कि दूसरे के हृदय को आघात पहुँते न बोले। ८. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरठं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा उभयस्संतरेण वा।। (द० १ : २५) विवेकी पुरुष अपने लिए, दूसरों के लिए, अपने और दूसरे दोनों के प्रयोजन के लिए पूछने पर पापकारी भाषा न बोले, न अर्थशून्य और मार्मिक बात कहे। ६. भासमाणो ण भासेज्जा णो य वम्फेज्ज मम्मयं । माइट्ठाणं विवज्जेज्जा अणुवीइ वियागरे।। (द० १, ६ : २५) विवेकी पुरुष बातचीत कर रहे हों उनके बीच में नहीं बोले, मर्मभेदी बात न कहे, माया भरे वचनों का परित्याग करे। जो बोले, सोचकर बोले। १०. दिलै मियं असंदिद्धं पडिपुन्नं वियंजियं । अयंपिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ।। (द० ८ : ४८) आत्मार्थी पुरुष दृष्ट,, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, व्यक्त और परिचित अथवा अनुभूत वचन बोले। उसकी भाषा वाचालता-रहित और किसी को भी उद्विग्न करने वाली न हो। ११. मियं अदुळं अणुवीइ भासए। सयाण मज्झे लहई पसंसणं ।। (द०७ : ५५ ग, घ) मित और दोषरहित वाणी सोच-विचारकर बोलने वाला पुरुष सत्पुरुषों में प्रशंसा को प्राप्त होता है। १२. पेसुण्णहासकक्कस-परणिंदप्पपसंसियं वयणं। परचित्ता सपरिहिदं भासासमिदी वंदतस्स।। (नि० सा० : ६२) __ पैशून्य, हास्य, कर्कश, परनिंदा और आत्म-प्रशंसा रूप वचन को छोड़कर स्व-पर-हितकारी वचनों को बोलनेवाले पुरुष के भाषा समिति होती है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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