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________________ : ६ : भाषा-विवेक १. चउन्हं खलु भासाणं परिसंखाय पन्नवं । दोहं तु विणयं सिक्खे दो न भासेज्ज सव्वसो ।। (द० ७ : १) प्रज्ञावान् चारों भाषाओं को अच्छी तरह जानकर सत्य और न सत्य-न-असत्य इन दो भाषाओं से व्यवहार करना सीखे और एकांत मिथ्या और सत्यासत्य इन दो भाषाओं को सर्वथा न बोले । २. जा य सच्चा अवत्तव्वा सच्चामोसा य जा मुसा । जाय बुद्धेहिंऽणाइन्ना न तं भासेज्ज पन्नवं । । ३. असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्धं गिरं भासेज्ज पन्नवं ।। जो भाषा सत्य होने पर भी अवक्तव्य हो, जो कुछ सत्य कुछ झूठ हो, जो भाषा मिथ्या हो तथा जो भाषा विचारशील पुरुषों द्वारा व्यवहार में न लाई जाती हो - विवेकी पुरुष ऐसी भाषा न बोले । विवेकी पुरुष सोच-विचारकर पाप रहित, अकर्कश - प्रिय, अर्थ वाली व्यवहार और सत्य भाषा बोले । ४. तहेव फरुसा भासा भूओवघाइणी । सच्चा विसा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो || (द० ७ : ५. तहेव काणं काणे त्ति पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि त्ति तेणं चोरे त्ति नो वए । । २) (द० ७ : ११) महान् भूतोपघातिनी (जीवों के दिलों को महान् दुःखाने वाली) तथा कर्कश भाषा, सत्य होने पर भी विवेकी न बोले। ऐसी भाषा से पाप का बंधन होता है । ६. अप्पत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज्ज वा परो । सब्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणिं । । (द० ७ : ३) हितकारी और स्पष्ट (द० ७ : १२ ) विवेकी काने को 'काना' नपुंसक' को 'नपुंसक', रोगी को 'रोगी' और चोर को 'चोर' न कहे । (द०८ : ८७) जिससे अप्रीति उत्पन्न हो, दूसरा शीघ्र कुपित हो, ऐसी अहितकर भाषा विवेकी पुरुष सर्वथा न बोले ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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