SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ ७. पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि ।। के वचन से या कर्म से, प्रगट में या प्रच्छन्न में, ज्ञानी पुरुषों कभी भी न करे । ८. धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छई ।। ४. दुःशील की गति १. जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई ।। ( उ०१ : ४२) जो व्यवहार धर्म से अनुमोदित है और ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करने वाला पुरुष कभी भी गर्हा - निन्दा को प्राप्त नहीं होता । महावीर वाणी २. कणकुण्डगं चइत्ताणं, विट्ठे भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए । । ( उ०१ : १७ ) प्रतिकूल आचरण ३. सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य । विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो || (उ० १ : जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया सब जगह से निकाली जाती है, उसी तरह दुःशील, ज्ञानियों से प्रतिकूल चलने वाला और वाचाल मनुष्य सब जगह से निकाल दिया जाता है। ४) (उ०१ : ५) जैसे चावलों की भूसी को छोड़ सूअर विष्ठा का भोजन करता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य शील को छोड़कर दुःशील में रमण करता है। ( उ०१ : ६) कुतिया और सूअर के साथ उपमित दुराचारी के अभाव (दुर्दशा) को सुनकर अपनी आत्मा का हित चाहने वाला पुरुष अपनी आत्मा को विनय में स्थापित करे । ४. तम्हा विणयमेव्सेज्जा। सीलं पडिलभे जओ ।। ( उ० १:७) इसलिए विनय का आचरण करे जिससे शील की प्राप्ति हो ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy