SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६. शील ३. कुछ शील १. निसंते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अंतिए सगा। . अट्ठजुत्ताणि सिकखेज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए।। (उ० १:८) सदा शान्त रहे, वाचाल न हो, ज्ञानी पुरुषों के समीप रहकर, अर्थयुक्त आत्मार्थ साधक पदों को सीखे। निरर्थक बातों को छोड़े। . २. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेविज्ज पण्डिए। खुड्डेहिं सह संसग्गि, हासं कीडं च वज्जए।। (उ० १ : ६) विवेकी पुरुष अनुशासन से कुपित न हो। क्षान्ति का सेवन करे तथा क्षुद्र जनों के साथ संगत, हास्य और क्रीड़ा का वर्जन करे। ३. मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे। कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाएज्ज एगगो।। (उ० १ : १०) क्रोधावेश में न बोले । बहुत न बोले । काल के नियम से स्वाध्याय करे और उसके बाद अकेला ध्यान करे। ४. आहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइवि। कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्ति य।। (उ० १ : ११) क्रोधवश सहसा अकृत्य कर उसे कभी भी न छिपावे। किया हो तो 'किया' कहे, नहीं किया हो तो 'नहीं किया' कहे। ५. मा गलियस्से व कसं, वयणमिच्छे पुणो-पुणो। ___कसं व दठुमाइण्णे, पावगं परिवज्जए।। (उ० १.: १२) जैसे दुष्ट घोड़ा बार-बार चाबुक की अपेक्षा रखता है वैसे विनीत शिष्य बार-बार अनुशासन की अपेक्षा न रखे। जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखकर ही सुमार्ग पर आ जाता है, उसी प्रकार विनयवान शिष्य गुरुजनों की दृष्टि आदि को देखकर ही दुष्ट मार्ग को छोड़ दे। ६. नापट्ठो वागरे किंचि, पट्ठो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुब्वेज्जा, धोरज्जा पियमप्पियं ।। (उ० १ : १४) बिना पूछे कुछ न बोले। पूछने पर झूठ न बोले। क्रोध को निष्फल बना दे तथा प्रिय और अप्रिय को समभाव से ग्रहण करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy