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८. चिरकालमज्जिदपि य विहुणदि तवसा रयति णाऊण । दुविहे तवम्मि णिच्चं भावेदव्वो हवदि अप्पा ।। ( मू० ७४८ )
बहुत काल का भी संचित कर्म-रज तप से नष्ट हो जाता है, ऐसा जानकर दो प्रकार के तप में आत्मा को निरन्तर भावित करना चाहिए ।
६. जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति । एवं अत्त-समाहिए अणिहे ।
(आ० १,४ (३) : ३३)
जिस तरह अग्नि पुरानी सूखी लकड़ी को शीघ्र जला डालती है, उसी तरह आत्मनिष्ठ ओर स्नेहरहित जीव तप से कर्मों को शीघ्र जला डालता है।
१०. सउणी जह पंसुगुंडिया विहुणिय धंसयई सियं रयं । एवं दविओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सि
माहणे । ।
महावीर वाणी
११. खवेत्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमन्ति महेसिणो ।।
जैसे शकुनिका पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई रज को अपना शरीर कँपाकर झाड़ देती है, उसी तरह से जितेन्द्रिय अहिंसक तपस्वी अनशन आदि तप द्वारा अपने आत्मप्रदेशों से कर्म -रज को झाड़ देता है ।
१२. तवनारायजुत्तेण भेत्तुणं कम्मकंचुयं । मुणि विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए ।।
(सू० १,२ (१) : १५)
(उ० २८ : ३६)
सर्व दुःखों का क्षय करने की कामना वाले पुरुष संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं।
१३. पंडिए वीरियं लधुं णिग्घायाय पवत्तगं । धुणे पुव्वकडं कम्मं णवं चावि ण कुव्वइ ।।
( उ० ६ : २२)
तपरूपी वाण से संयुक्त हो, कर्मरूपी कवच का भेदन करनेवाला ज्ञानी पुरुष संग्राम का अंत ला, संसार से (जन्म-जन्मान्तर से) मुक्त हो जाता है।
(सू० १,१५ : २२)
पंडित पुरुष, कर्मों को विदारण करने में समर्थ वीर्य को पाकर नवीन कर्म न करे और पूर्वकृत कर्मों को धुन डाले ।