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७. विनय
(५) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (६) जो क्रोध को टिकाकर नहीं रखता, (७) मित्रता करने वाले के साथ मित्र-भाव रखता है, (८) श्रुत का लाभ होने पर गर्व नहीं करता, (६) दोषी का तिरस्कार नहीं करता, (१०) मित्र पर कुपित नहीं होता, (११) अप्रिय मित्र की भी एकान्त में बड़ाई करता है, (१२) जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है, (१३) जो कुलीन होता है, (१४) जो लज्जाशील होता है, तथा (१५) जो प्रतिसंलीन (इन्द्रिय और मन को गुप्त रखने वाला) होता है, वह बुद्ध पुरुष विनीत कह जाता है। 3. तहेव सविणीयप्पा लोगंसि नरनारिओ।
दीसंति सुहमेहंता इड्ढि पत्ता महायसा।। (द० : ६ (२) : ६)
लोक में जो पुरुष या स्त्री सविनीत होते हैं, वे ऋषि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखें जाते हैं। ४. जे य चंडे मिए थद्ध दुव्वाई नियडी सढे।
वुज्झइ से अविणीयप्पा कठें सोयगयं जहा।। (द० : ६ (२) : ३)
जो चण्ड, अज्ञ, स्तब्ध, अप्रियवादी, मायावी और शठ है, वह अविनीतात्मा संसारस्रोत में वैसे ही प्रवहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काठ। ५. विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणीयस्स य ।
जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ।। (द० : ६ (२) : २१)
अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है-ये दोनों जिसे ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। ६. नच्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए।
हवई किच्चाणं सरणं भूयाण जगई जहा।। (उ० : १ : ४५)
विनय के रूप को जानकर जो पुरुष नम्र हो जाता है, वह इस लोक में कीर्ति प्राप्त करता है। जिस तरह पृथ्वी प्राणियों के लिए शरण होती है, उसी प्रकार वह धर्माचरण करने वालों के लिए आधार बन जाता है।