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महावीर वाणी
जीव- दया, दम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप-ये सब शील के परिवार हैं।
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४. सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य णाणसुद्धी य । शीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं ।।
ही
शील ही विशुद्ध तप है, शील ही दर्शन की शुद्धता है, शील है, शील ही विषयों का शत्रु है और शील ही मोक्ष का सोपान है। ५. जह विसयलुद्ध विसदो तह थावरजंगमाण घोराणं । सव्वेसिं पि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ।।
(शी० पा० २१)
जो विषयलुब्ध होता है उसे विषय विष देते हैं। जो घोर विष स्थावर जंगम सर्व जीवों का विनाश करता है उससे दारुण विष विषयों का है ।
६. वारि एक्कम्मि य जम्मे सरिज्ज विसंवेयणाहदो जीवो ।
विसयविसपरिहया
णं भमंति संसारकांतारे । । (शी० पा० २२) विष की वेदना से हत जीव एक बार ही दूसरा जन्म पाता है अर्थात् एक जन्म ही मरता है, किन्तु विषयरूपी विष से हत मनुष्य बार-बार संसार- कांतार में भटकते रहते हैं ।
(शी० पा० २० )
ज्ञान की शुद्धता
७. तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि ।
तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विसय व खलं । । (शी० पा० २४)
जैसे तुषों को उड़ाने से मनुष्य का कोई कोई द्रव्य नहीं जाता, वैसे ही विषयों के त्याग से मनुष्य को कोई हानि नहीं होती । तप से शीलवान् कुशल पुरुष विष रूपी विषयों को खल की तरह दूर करते हैं ।
८.
उदधीव रदणभरिदो तवविणयसीलदाणरयणाणं । सोहेतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो ।।
जैसे रत्नों से भरा हुआ समुद्र सुशोभित होता है वैसे ही तप, आदि रूप रत्नों से भरा हुआ सुशील मनुष्य सुशोभित होता है। को प्राप्त होता है।
६. णाणं चरित्तशुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविशुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ।।
(शी० पा० २८)
विनय, शील, दान वह अनुत्तर निर्वाण
(शी० पा० ६)
चारित्र से पवित्र ज्ञान, दर्शन से पवित्र लिंग ग्रहण और संयम सहित तप-ये थोड़े भी हों, तो महाफल देनेवाले होते हैं ।