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:८: शील
१. शील बनाम ज्ञान १. सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहिं णिट्ठिो।
णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति।। (शी० पा० २)
शील और ज्ञान इन दोनों में प्रबुद्ध पुरुषों ने कोई विरोध नहीं कहा है। केवल इतना ही है कि शील के बिना विषय ज्ञान का विनाश कर देते हैं। २. णाणं णाऊणं णरा केई विसयाइभावसंसत्ता। हिंडंति चादुरगदिं विसएसु विमोहिया मूढा।। (शी० पा० ७)
ज्ञान को जानकर भी कई मनुष्य विषयादि भावों में आसक्त होते हैं। वे विषयों में विमोहित मूढ़ मनुष्य चारों गतियों में भ्रमण करते हैं। ३. जे पुण विसयविरत्ता णाणं णाऊण भावणासहिदा। छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।। (शी० पा० ८)
जो ज्ञान को जानकर विषयों से विरक्त होते हैं, वे भावना सहित और तपोगुण से युक्त मनुष्य चार गति रूप संसार का छेदन करते हैं, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। ४. जह कंचणं विशुद्ध धम्मइयं खंडियलवणलेवेण ।
तह जीवो वि विसुद्धं णाणविसलिलेण विमलेण।। (शी० पा० ६) __ जैसे सुहागा और नमक के लेप से धमाया हुआ सोना विशुद्ध होता है, उसी प्रकार जीव ज्ञानरूपी विमल जल से प्रक्षालित होने पर विशुद्ध होता है। ५. णाणस्स णत्थि दोसो कप्पुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो।
जे णाणगविदा होऊणं विसएसु रज्जंति।। (शी० पा० १०)
कुछ मनुष्य ज्ञानगर्वित होकर विषयों में आसक्त होते हैं। यह ज्ञान का दोष नहीं है, उन मन्दबुद्धि पुरुषों का दोष है। ६. णाणेण दसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण।
होहदि परिणिव्वाणं जीवाणं चरित्तसुद्धाणं ।। (शी० पा० ११)