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महावीर वाणी.
इसी तरह धर्म का भूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम रस है । विनय के द्वारा ही मनुष्य श्लाघनीय शास्त्र ज्ञान तथा कीर्ति प्राप्त करता है । अन्त में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है।
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४. विनीत- अविनीत
संजए ।
१. अह चउदसहिं ठाणेहिं वट्टमाणो उ अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छइ । । अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई । मेत्तिज्जमाणो वमइ सुयं लद्धूण मज्जई || अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्धे असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति
कुप्पई ।
पावगं । । अणिग्गहे । वुच्चई ।। (उ० ११ : ६–६)
निम्न चौदह स्थानों में वर्तन करने वाला संयमी अविनीत कहा जाता है। और वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होता । ( १ ) जो बार-बार क्रोध करने वाला है, (२) जो क्रोध का प्रबन्ध करता है-उसे टिकाकर रखता है, (३) जो मित्रता करने वाले को छोड़ता है, (४) जो श्रुत ज्ञान प्राप्त कर अभिमान करता है, (५) जो दोषी का तिरस्कार करता है, (६) जो मित्र के प्रति कुपित होता है, (७) जो सुप्रिय मित्र की भी एकांत में बुराई करता है, (८) जो असम्बद्ध बोलने वाला होता है, (६) जो द्रोही होता है, (१०) जो अहंकारी होता है, (११) जो लोलुप होता है, (१२) जो अजितेन्द्रिय होता है, (१३) जो असंविभागी होता है तथा (१४) जो अप्रतीतिकर होता है, वह अविनीत कहा जाता है।
अकुऊहले ।। कुव्वई । मज्जई ||
न
२. अह पन्नरसहिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई | नीयावत्ती अचवले अमाई अप्पं चाऽहिक्खिवई पबन्धं च मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लधुं न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण कलहडमरवज्जए बुद्धे हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीए त्ति
कुप्पई ।
भासई ।।
अभिजाइए ।
वुच्चई ।। ( उ०११ : १०-१३)
पन्द्रह स्थानों (कारणों) से व्यक्ति सुविनीत कहलाता है - (१) जो नम्र होता है,
(२) जो चपल नहीं होता, (३) जो मायावी नहीं होता, (४) जो कुतूहल नहीं करता,