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महावीर वाणी
१३. जीवस्स कुजोणिगदस्स तस्स दुक्खाणि वेदयंतस्स । किं ते करंति भोगा मदो व वेज्जो मरंतस्स ।।
(भग० आ० १२७७) कुयोनियों में दुःख का अनुभव करते हुए जीव की वे भोग क्या रक्षा कर सकते हैं? मरा हुआ वैद्य मरने वाले का क्या उपचार कर सकता है ? १४. भोगोवभोगसोक्खं जं जं दुक्खं च भोगणासम्मि।
एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसिडें ।। (भग० आ० १२४८)
भोगोपभोग से जो सुख मनुष्य को होता है तथा भोग के नाश से जो दुःख होता है-इन दोनों में भोग-पदार्थों के नाश से उत्पन्न दुःख ही अधिक होता है। १५. जह कोडिल्लो अग्गिं तप्पंतो णेव उवसमं लभदि । तह भोगे भुंजंतो खणं पि णो उवसमं लभदि ।।
(भग० आ० १२५१) जैसे कुष्ठी मनुष्य अग्नि का सेवन करता हुआ रोग की शान्ति को प्राप्त नहीं होता है, वैसे ही भोगों को भोगता हुआ प्राणी संतोष को प्राप्त नहीं होता है। १६. जह जह भुंजइ भोगे तह तह भोगेसु वड्ढदे तण्हा। अग्गीव इंधणाई तण्हं दीविंति से भोगा।।
(भग० आ० १२६२) जैसे-जैसे मनुष्य भोगों को भोगता है, वैसे-वैसे ही उसकी भोग-तृष्णा बढ़ती जाती है। जैसे ईंधन अग्नि को दीप्त करता है, वैसे ही भोगे हुए भोग तृष्णा को दीप्त करते
१७. जीवस्स णत्थि तित्ती चिरं पि भोएहिं भुंजमाणेहिं। तित्तीए विणा चित्तं उबूरं उबुदं होइ।।
(भग० आ० १२६३) चिरकाल तक भोगों को भोग लेने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती। तृप्ति के बिना जीव का चित्त रिक्त और उत्कंठित रहता है। १८. जह इधणेहिं अग्गी जह व समुद्दों णदीसहस्सेहिं)
तह जीवा ण हु सक्का तिप्पेईं कामभोगेहिं ।। (भग० आ० १२६४)
जैसे ईंधन से अग्नि और सहस्रों नदियों से समुद्र की तृप्ति नहीं होती वैसे ही जीव कामभोगों से तृप्त नहीं हो सकते।