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६. कामभोग
१९. उद्घयमणस्स ण सुहं सुहेण य विणा कुदो हवदि पीदी । पीदीए विणा ण रदी उद्घयचित्तस्स घण्णस्स ।।
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(भग० आ० १२६७)
जिसका चित्त व्याकुल है, उसे सुख नहीं होता। सुख के बिना तृप्ति कैसे हो सकती है ? तृप्ति के बिना व्याकुल और उत्कंठित व्यक्ति को रति (आनन्द) नहीं होता। २०. जो पुण इच्छदि रमिदुं अज्झप्पसुहम्मि णिव्वुदिकरम्मि । कुणदि रदिं उवसंतो अज्झप्पसमा हु णत्थि रदी ।।
(भग० आ० १२६८)
२१. अप्पायत्ता अज्झपरदी भोगरमणं परायत्तं । भोगरदीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण । ।
जो मनुष्य रमण करने की इच्छा करता है, वह उपशांत हो तृप्ति करने वाले अध्यात्म-सुख में रति करे । अध्यात्म- रति के समान दूसरी कोई रति नहीं है ।
(भग० आ० १२६६ ) आत्म-स्वरूप विषयक रति स्वायत्त - परद्रव्य की अपेक्षा से रहित होती है ।, भोगरत परायत्त - परद्रव्यों पर अवलम्बित होती है । भोगरत में च्युति है ( क्योंकि वह पर-द्रव्याश्रित होती है) आत्मरति में च्युति नहीं होती ( क्योंकि आत्मा का सान्निध्य सदा रहता है) ।
२२. भोगरदीए णासो णियदो विग्घा य होंति अदिबहुगा । अज्झप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा । ।
(भग० आ० १२७०)
भोगरत से नियम से आत्मा का नाश होता है और इसमें अनेक विघ्न भी होते हैं, पर सुभावित अध्यात्म-रति से आत्मा का नाश नहीं होता और उसमें विघ्न नहीं है ।