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२. घोसादर्की य जह किमि खंतो मधुरित्ति मण्णदि वराओ । तह दुक्खं वेदंतो मण्णइ सुक्खं जणो कामी । ।
(भग० अ० १२५३)
महावीर वाणी
घोषातकी नामक कड़ ए फल को खाता हुआ मूर्ख कृमि जैसे उसको मीठा मानता है, वैसे ही कामी पुरुष वास्तव में दुःख का भोग करता हुआ उसको सुख मानता है । ३. ण लहदि जह लेहंतो सुक्खल्लयमट्ठियं रसं सुणहो ।
से सगतालुगरुहिरं लेहंतो मण्णए सुक्खं ।। महिलादिभोगसेवी ण लहदि किंचिवि सुहं तथा पुरिसो । सो मण्णदे वराओ सगकायपरिस्समं सुक्खं ।। (भग० आ० १२५५-५६)
जैसे कुत्ता रक्तहीन सूखी अस्थि को चबाता हुआ रस को प्राप्त नहीं करता किन्तु अपने ही तालू से निकले हुए रक्त को चूसता हुआ सुख मानता है वैसे ही स्त्री आदि भोगों का सेवन करने वाला पुरुष थोड़ा भी सुख प्राप्त नहीं करता, किन्तु अपने शरीर के परिश्रम को ही सुख मान लेता है।
४. सुठु वि मग्गिजंतो कत्थ वि कयलीए णत्थि जह सारो । तण णत्थि सुहं मग्गिज्जंते भोगेसु
अप्पं
पि । ।
(भग० आ० १२५४)
सूक्ष्म रूप से अन्वेषण करने पर भी कदली में कहीं भी कोई सार नहीं देखा जाता, वैसे ही खोज करने पर भी भोगों में थोड़ा भी सुख नहीं पाया जाता
५. दीसइ जलं व मयतहिया हु जह वणमयस्स तिसिदस्स । भोगा सुहं व दीसंति तह य रागेण तिसियस्स ।।
(भग० आ० १२५७)
जैसे जंगल में विचरने वाले तृषित हिरणों को मृगतृष्णिका जल के समान दीखती है, वैसे ही राग-भाव से तृषित मनुष्यों को भोग सुख रूप दिखाई देते हैं ।
६. वग्घो सुखेज्ज मदयं अवगासेऊण जह मसाणम्मि । तह कुणिमदेहसंफंसणेण अबुहा सुखायंति । ।
(भग० आ० १२५८)
श्मशान में व्याघ्र शव का भक्षण कर तृप्त होता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य कुत्सित शरीर के स्पर्श से सुख का अनुभव करता है।