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४. दुर्लभ संयोग
३६ ३. अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइं करेदि निरवसेसाई।
तह वि ण पावदि सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो।। (सू० पा० १५) __ जो आत्मा को नहीं चाहता और समस्त धर्माचरण करता है उसे मुक्ति प्राप्त नहीं होती। ऐसे मनुष्य को संसारी ही कहा है। ४. एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण।
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ।। (सू० पा० १६)
इस कारण हे मनुष्य ! तू मन, वचन, काया से उस आत्मा का श्रद्धान कर तथा प्रयत्नपूर्वक उस आत्मा को जान, जिससे तू मोक्ष को प्राप्त कर सके। ५. ण हि आगमेण सिज्सदि सद्दहणं जदि ण अत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।।
(प्र० सा० ३ : ३७) यदि जीवादि पदार्थों का श्रद्धान नहीं है तो आगम के जानने से भी मुक्ति नहीं होती। इसी तरह जीवादि पदार्थों का श्रद्धान होते हुए भी यदि मनुष्य असंयमी है तो उसे भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती। ६. बहुगंपि सुदमधीदं किं काहदि अजाणमाणस्स। दीवविसेसो अंधे णाणविसेसोवि तह तस्स ।। (मूल० १० : ६५)
जो आचरण रहित है वह बहुत से शास्त्रों को भी पढ़ ले तो उसका वह शास्त्रज्ञान क्या कर सकता है ? जैसे अंधे के हाथ में दीपक की कोई विशेषता नहीं होती, उसी प्रकार आचरणहीन के ज्ञान की कोई विशेषता नहीं होती। ७. णाणं करणविहूणं लिंगरगहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणो य तवो जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि।।
(भग० आ० ७७०) ऐसा ज्ञान, जिसके साथ चारित्र नहीं है; ऐसा वेश-ग्रहण, जिसके साथ दर्शन नहीं है; ऐसा तप, जो संयम से रहित है-जो इनकी साधना करता है वह निरर्थक साधना करता है। ८. धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु।
ण य सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाई ।। (मूल० ६:३) १. सुबहुं पि सुयगहीयं किं काठी चरणविप्पमुक्कस्स।
अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्स कोडी वि।। (आ० नि०)