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कामभोग
१. कामभोग १. उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई।। (उ० २५ : ३६)
भोग में कर्मों का उपलेप-बन्धन होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी को जन्म-मरण रूपी संसार में भ्रमण करना पड़ता है, जबकि अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है। २. उल्लो सुक्को य वो छुढा, गोलया मट्टियामया।
दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोतत्थ लग्गई।। एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरात्ता उ न लग्गंति, जहा सुक्को उ गोलओ।।
(उ० २५ : ४०, ४१) जिस तरह सूखे और गीले दो मिट्टी के गोलों को फेंकने पर दोनों दीवार पर गिरते हैं, किन्तु गीला ही दीवार के चिपकता है; उसी प्रकार जो काम-लालसा में आसक्त
और दुष्ट बुद्धि वाले मनुष्य होते हैं, वे संसार में बन्धन को प्राप्त होते हैं। जो कामभोगों से विरक्त होते हैं, वे बन्धन को प्राप्त नहीं होते, जैसे सूखा गोला दीवार के नहीं चिपकता। ३. खणमेत्तसोवखा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। ससारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।।
(उ० १४ : १३) कामभोग क्षणिक (इन्द्रिय) सुख देने वाले होते हैं और दीर्घकालीन आत्मिक दुःख। उनसे सुखानुभव तो नाममात्र होता है और दुःख का कोई ठिकाना नहीं। संसार से छुटकारा पाने में ये विघ्नकारी हैं। ये कामभोग अनर्थों की खान हैं। ४. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोग्गइं।। (उ० ६ : ५३)
कामभोग शल्यरूप हैं, कामभोग विषरूप हैं, आशीविष सर्प के सदृश हैं। भोगों की प्रार्थना करते-करते जीव बिचारे उनको प्राप्त किये बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं।