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महावीर वाणी
५. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं काएण वाया अदु माणसेणं। . तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ।।
(द० चू० २ : १४) जब कभी अपने-आप को मन, वचन, काया से कहीं भी दुष्प्रवृत्त होता देखे तो धीर पुरुष लगाम से खींचे गए घोड़े की तरह उसी क्षण अपने-आप को उस दुष्प्रवृत्ति से हटा ले।
६. जस्सेरिया जोग जिइंदियस्स धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । ___ तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी सो जीवइ संजमजीविएणं ।।
(द० चू० २ : १५) जिस धृतिमान, जितेन्द्रिय सत्पुरुष के मन, वचन, काया के योग इस प्रकार नित्य वश में रहते हैं, उसे ही लोक में सदा जाग्रत कहा जाता है। सत्पुरुष हमेशा संयमी जीवन जीता है। ७. अप्पा खलु सययं रक्खियब्बो सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उवेइ सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ।।
(द० चू० २ : १६) सर्व इन्द्रियों को अच्छी तरह वश में कर आत्मा की (पापों से) अवश्य ही सतत् रक्षा करनी चाहिए। जो आत्मा सुरक्षित नहीं होती, वह जाति-पथ में (भिन्न-भिन्न योनियों में) जन्म-मरण ग्रहण करती है। जो आत्मा सुरक्षित होती है, वह सर्व दुःखों से मुक्त हो जाती है। ८. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता। समवट्टिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा।।
(प्र० सा० : २१०४) जिसने मोहरूपी कालुष्य को नष्ट कर दिया है और जो विषयों से विरक्त है, वह पुरुष अपने मन का निरोध कर अपने स्वभाव में अच्छी तरह स्थित होता है। ऐसा पुरुष अपनी आत्मा का ध्याता होता है। ६. आगतिं गतिं परिण्णाय दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे। से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए।।
(आ० १, ३ (३) : ५८) आगति और गति को जानकर जिसने दोनों ही अन्तों-राग और द्वेष को छोड़ दिया है वह सारे लोक में न किसी के द्वारा छिन्न होता है और न भिन्न। न दग्ध होता है और न निहत।