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: ४ : दुर्लभ संयोग
१. परम अंग १. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं ।। (उ० ३ . १) __ संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग (उत्तम संयोग) अत्यन्त दुर्लभ है' : (१) मनुष्य-भव, (२) धर्म-श्रुति-धर्म का सुनना, (३) श्रद्धा-धर्म में रुचि और (४) संयम-धर्म में वीर्य-पराक्रम। २. समावन्नाण संसारे नाणा-गोत्तासु जाइसु ।
कम्मा नाणा-विहा कटु पुढो विस्संभिया पया।। . (उ० ३ : २)
संसारी जीव संसार में नाना प्रकार के कर्म कर विविध जाति और विविध गोत्रों में उत्पन्न होते हैं। पृथक्-पृथक् रूप से इन प्राणियों ने इस विश्व को भर रखा है। ३. एगया देवलोएसु नरएसु वि एगया।
एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गच्छई।। (उ० ३ : ३)
अपने कर्मों के अनुसार जीव कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुर योनि में जन्म ग्रहण करता है। ४. एगया खत्तिओ होइ तओ चण्डाल-वोक्कसो। तओ कीड-पयंगो य तओ कुन्थु-पिवीलिया।। (उ० ३ : ४)
जीव कभी क्षत्रिय होता है, कभी चाण्डाल और कभी वोक्कस। कभी कीट-पतंग और कभी कुन्थु-चींटी होकर जन्म लेता है।
१. उत्तराध्ययन के १०वें अध्ययन की १६वीं और १७वीं गाथाओं में क्रमशः 'आर्यत्व' और
'अहीन-पंचेन्द्रियता'-पाँचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता को भी दुर्लभ बताया गया है और इनको 'मनुष्य-भव के बाद और 'धर्म-श्रुति' के पहले स्थान दिया है। गाथाएँ इस प्रकार हैं
लभ्रूण वि माणुसत्तणं आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं । बहवे दसुया मिलेखुया समयं गोयम! मा पमायए।। लभ्रूण वि आरियत्तणं अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा। वगलिंदियया हु दीसई समयं गोयम ! मा पमायए।।