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४. दुर्लभ संयोग ५. एवमावट्ट-जोणीसु पाणिणो कम्म-किब्बिसा।
न निविज्जन्ति संसारे सव्वट्ठेसु व खत्तिया।। (उ० ३ : ५)
कर्म द्वारा मलिनता प्राप्त जीव एक के बाद एक योनि में भ्रमण करते हुए भी संसार के प्रति उसी प्रकार निर्वेद को प्राप्त नहीं होते जिस प्रकार (हर तरह से सम्पन्न) क्षत्रिय सर्व प्रकार के अर्थ (धन, कनक, भूमि, वनिता आदि के और अधिक संग्रह) से। ६. कम्मसंगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा।
अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मन्ति पाणिणो।। (उ० ३ : ६)
कर्म-संग से मूढ़, दुःखित और अत्यन्त वेदना-प्राप्त प्राणी मनुष्येतर योनियों में पतित होकर पीड़ित होते हैं। ७. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुची कयाइ उ।
जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं ।। (उ० ३ : ७)
कर्मों के क्रमशः क्षय से शुद्धि को प्राप्त हुए जीव कदाचित् बहुत लम्बे काल के बाद मनुष्य-भव को पाते हैं। ८. माणुस्सं विग्गहं लधुं सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
जं सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं ।। (उ० ३ : ८)
मनुष्य देह पाकर भी उस धर्म का सुनना दुर्लभ है, जिस धर्म को सुनकर मनुष्य तप, संयम और अहिंसा को स्वीकार करते हैं। ६. आहच्च सवणं लधु सद्धा परमदुल्लहा।
सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे. परिभस्सई ।।२ (उ० ३ : ६)
कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना परम दुर्लभ है, क्योंकि मोक्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी अनेक जीव उससे भ्रष्ट हो जाते हैं। १०. सुइं च लधुं सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं।
बहवे रोयमाणा वि नो एणं पडिवज्जए।। (उ० ३ : १०).
१. मिलावें : उ० १० : १८
अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा।
कुतित्थिनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए ।। २. मिलावें : उ० १० : १६
लधूण वि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा।
मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए।। ३. मिलावें : उ० १० : २० पृ० ६ पर उद्धृत।