________________
महावीर वाणी
७. आत्म-जय : परम जय १. इमेणं चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ? जुद्धारिहं खलु दुल्लहं।
(आ० १.५ (३) : ४५, ४६) हे प्राणी ! अपनी आत्मा के दुर्गुणों के साथ ही युद्ध कर। दूसरों से युद्ध करने से क्या प्रयोजन ? दुष्ट आत्मा के साथ युद्ध करने योग्य समग्री का पुनः-पुनः मिलना दुर्लभ है। २. अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा-दन्तो सुही होइ अस्सि लोए परत्थ य।। (उ० १ : १५)
आत्मा का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि वास्तव में आत्मा ही दुर्दम है। जो अपनी आत्मा का दमन कर चुका, वह इहलोक तथा परलोक में सुखी होता है। 3. वरं मे अप्पा दन्तो संजमेण तवेण य।
माहं परेहि दम्मन्तो बन्धणेहि वहेहि य।। (उ० १ : १६) _दूसरे लोगों द्वारा वध और बन्धनादि से दमन किया जाऊँ-ऐसा न हो। दूसरों के द्वारा दमन किया जाऊँ, उसकी अपेक्षा संयम और तप के द्वारा मैं ही अपनी आत्मा का दमन करूँ-यह अच्छा है। ४. पुरिषा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ ।
एवं दुक्खा पमोक्खसि ।। (आ० १,३ (३) : ६४)
हे पुरुष ! आत्मा को ही नियन्त्रण में कर। ऐसा करने से तू सर्व दुःखों से मुक्त होगा। ५. जो सहस्सं संगामे दुज्जए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ।। (उ० ६ : ३४) ___ जो व्यक्ति दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो केवल अपनी एक आत्मा को जीतता है, उसकी यह विजय श्रेष्ठ है। ६. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ?।
अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता . सुहमेहए।। (उ० ६ : ३५)
अपनी आत्मा के साथ युद्ध कर । बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या प्रयोजन? आत्मा द्वारा आत्मा को जीतकर ही मनुष्य सुख प्राप्त करता है।