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३. बहिरात्मा
१. देह-मिलिदो वि जीवो सव्व-कम्माणि कुव्वदे जम्हा । तम्हा पयट्टमाणो एयत्तं बुज्झदे दोण्हं । । (द्वा० अ० १८.५)
क्योंकि देह से मिला हुआ ही जीव समस्त कर्म करता है, इसलिए उन कर्मों में प्रवर्त्तमान बहिरात्मा को दोनों (देह और जीव ) का एकत्व प्रतीत होता है।
२. राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी हं चेव दुब्बलो बलिओ ।
इदि एयत्ताविट्ठो दोण्हं भेयं ण बुज्झेदि ।। ( द्वा० अ० १८७)
महावीर वाणी
राजा हूँ, मैं भृत्य हूँ, मैं श्रेष्ठी हूँ, मैं दुर्बल हूँ-मैं दरिद्र हूँ, मैं बलवान हूँ- इस प्रकार शरीर और आत्मा के एकत्व में आविष्ट यह जीव शरीर और आत्मा के भेद को नहीं समझता ।
३. बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ।।
(मो० पा०८)
मूढदृष्टि बहिरात्मा इन्द्रियों के द्वारा बाह्य पदार्थों में मन को लगाता हुआ अपने स्वरूप से च्युत हो अपने शरीर को ही आत्मा मानने का अध्यवसाय (संकल्प) करता है।
४. णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण ।
अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण । ।
(मो० पा० ६) मूढ़दृष्टि बहिरात्मा अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर यद्यपि वह अचेतन है तथापि उसका प्रयत्नपूर्वक और परमभाव से ध्यान करता है ।
५. सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ||
(मो० पा० १० )
इस प्रकार देह को ही अपना और पर का आत्मा मानने से पदार्थों के स्वरूप को न जानने वाले मनुष्यों का स्त्री, पुत्र आदि के विषय में मोह बढ़ता है।
६. मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो। मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ । । (मो० पा० ११) मिथ्याज्ञान में लीन हुआ और मिथ्याभाव की भावना रखता हुआ मनुष्य मोह के उदय से पुनः शरीर को आत्मा मानता है ।
७. परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो । सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो।।
(मो० पा० ६६)